गरियाबंद के तहसील आफ़िस वाले शिवमंदिर में ट्रेज़री का बड़ा बाबू बिना नागा प्रतिदिन एक दिया जलाया करता मेरी स्मृतियों में वह हमेशा वहाँ दिया जलाता रहेगा चाहे आँधी हो या तूफ़ान । मेरी स्मृतियों में वह बड़ा बाबू कभी सेवानिवृत्त नहीं होगा।
शहर मर रहा है / संजय शेफर्ड
शहर मर रहा था और खतरा उन शरीफों से ज्यादा था जो आधी रात को किसी की अस्मत बचाने निकले थे और उठा लाए थे कुछ लड़कियों के सफ़ेद-स्याह दुप्पटे और कल्पना कर रहे थे उसकी निर्वस्त्र देह खुली छातियों, समतल पीठ, उभरे पेट और अंदर जाती नाभि की दुपट्टा बंद कमरे में रंगीन मिज़ाज… Continue reading शहर मर रहा है / संजय शेफर्ड
मुठ्ठी भर लड़ाईयां / संजय शेफर्ड
जिन पैरों को अथाह दूरी नापनी थी वह वस्तुतः थक चुके थे और मैंने कहीं पढ़ा भी था कि गर सफ़र लम्बा हो तो थकान जरूरी है इसीलिए रास्तें में आ रही इन तमाम थकानों को मैं अपने लिए उपहार घोषित करता हूं और पूरी दुनिया को चिल्ला- चिल्लाकर यह बता देना चाहता हूं कि… Continue reading मुठ्ठी भर लड़ाईयां / संजय शेफर्ड
कुछ तो मिला है आँखों के दरिया खंगाल के / संजय मिश्रा ‘शौक’
कुछ तो मिला है आँखों के दरिया खंगाल के लाया हूँ इनसे फिक्र के मोती निकाल के हमने भी ढूंढ ली है जमीं आसमान पर रखना है हमको पाँव बहुत देखभाल के बच्चा दिखा रहा था मुझे जिन्दगी का सच कागज़ की एक नाव को पानी में डाल के उम्मीद के दिए में भरा सांस… Continue reading कुछ तो मिला है आँखों के दरिया खंगाल के / संजय मिश्रा ‘शौक’
कई सूरज कई महताब रक्खे / संजय मिश्रा ‘शौक’
कई सूरज कई महताब रक्खे तेरी आँखों में अपने ख्वाब रक्खे हरीफों से भी हमने गुफ्तगू में अवध के सब अदब-आदाब रक्खे हमारे वास्ते मौजे-बला ने कई साहिल तहे-गिर्दाब रक्खे उभरने की न मोहलत दी किसी को चरागों ने अँधेरे दाब रक्खे
अत्याचारियों के स्मारकों पर धर्मलेख / संजय चतुर्वेदी
उन्होंने कोई अच्छॆ काम नहीं किए थे ज़िन्दगी में यह उन्हें पता था और उन्हें भी जिन्होंने किया उनका अन्तिम संस्कार उन्हें पता था शायद इन्सान उन्हें कभी माफ़ न कर सकें पर उन्हें उम्मीद थी इबारतें उन्हें माफ़ कर देंगी और वे ऎसा पहले भी करती रही हैं।
सभी लोग और बाक़ी लोग / संजय चतुर्वेदी
सभी लोग बराबर हैं सभी लोग स्वतंत्र हैं सभी लोग हैं न्याय के हक़दार सभी लोग इस धरती के हिस्सेदार हैं बाक़ी लोग अपने घर जाएँ सभी लोगों को आज़ादी है दिन में, रात में आगे बढने की ऐश में रहने की तैश में आने की सभी लोग रहते हैं सभी जगह सभी लोग, सभी… Continue reading सभी लोग और बाक़ी लोग / संजय चतुर्वेदी
नींद में पुल / संजय कुमार सिंह
बार-बार समय को पकड़ना कविता में अपने आपको पकड़ना है। मैं लौटकर आ गया हूँ उन्हीं सवालों के नीचे कितना कठिन है मेरा समय? कितना कठिन है जीवन? …रोज़ मैं उन रास्तों को पार करता हूँ थके होने के बाजवूद स्वप्न में चलता हूँ मीलों दूर पहुँचता हूँ उन स्मृतियों के पास। वहाँ मेरा, छूटा… Continue reading नींद में पुल / संजय कुमार सिंह
हमारे पास एक दिन जब / संजय कुमार सिंह
हमारे पास एक दिन जब केवल दुःखों की दुनिया बच जाएगी हम सोचेंगे अपने तमाम अच्छे-बुरे विशेषणों के साथ उनके बारे में / हमें कहना ही पड़ेगा यह दुःख उजला था / वह काला / यह चमकीला वह पीला भूरा / वह गहरा / वह उथला वह कोलतार पुते रास्ते-सा / यह साथ-साथ चलता था… Continue reading हमारे पास एक दिन जब / संजय कुमार सिंह
भेड़िए / संजय कुमार कुंदन
आज का दिन अजब-सा गुज़रा है इस तरह जैसे दिन के दाँतों में गोश्त का कोई मुख़्तसर रेशा बेसबब आ के फँस गया-सा हो एक मौजूदगी हो अनचाही एक मेहमान नाख़रूश जिसे चाहकर भी निकाल ना पाएँ और जबरन जो तवज्जों[1] माँगे आप भी मसनुई[2] तकल्लुफ़[3] से देखकर उसको मुस्कराते रहें भेड़िए आदमी की सूरत… Continue reading भेड़िए / संजय कुमार कुंदन