नींद में पुल / संजय कुमार सिंह

बार-बार समय को पकड़ना कविता में
अपने आपको पकड़ना है।
मैं लौटकर आ गया हूँ उन्हीं सवालों के नीचे
कितना कठिन है मेरा समय? कितना कठिन है जीवन?
…रोज़ मैं उन रास्तों को पार करता हूँ
थके होने के बाजवूद स्वप्न में चलता हूँ मीलों दूर
पहुँचता हूँ उन स्मृतियों के पास।

वहाँ मेरा, छूटा हुआ प्रेम है बचपन का
माँ का स्नेह / पिता का आशीष
भाई का धूल-माटी हुआ संबल
वह नदी है गाँव की रेत में धँसी हुई
वह खेत है धूप में जला हुआ
एक पूरा जंगल कटा हुआ…
जहाँ उम्मीद पर टिकी है दुनिया
मौसम की मार के बाद भी जहाँ बचा है जीवन!

यह कोई राजनीति नहीं है कविता में / सच है समय का
अलगाव और विस्थापन के चाकू से कटा हुआ
यहाँ भीड़ है इस तरफ / पूरी भाग-दौड़
हिंसा और छल के रिश्ते / विज्ञापन और सौदेबाजी का
रंगारंग संसार / भीतर बाहर घरघराता शोर
नींद है, पर जागने की कीमत पर।

बहुत कम समय में आपको कहीं जाना हो
तो कहाँ जाएँगे आप? दफ़्तर या गाँव?
वह पुल सुबह की सायरन की आवाज के साथ टूट जाएगा
अक्सर टूट जाता है / छूट जाता हूँ मैं नींद के इस पार
सचमुच कितना असंभव है उस पार जाना
रोज़ नींद में एक पुल बनाना!

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