भेड़िए / संजय कुमार कुंदन

आज का दिन अजब-सा गुज़रा है इस तरह जैसे दिन के दाँतों में गोश्त का कोई मुख़्तसर रेशा बेसबब आ के फँस गया-सा हो एक मौजूदगी हो अनचाही एक मेहमान नाख़रूश जिसे चाहकर भी निकाल ना पाएँ और जबरन जो तवज्जों[1] माँगे आप भी मसनुई[2] तकल्लुफ़[3] से देखकर उसको मुस्कराते रहें भेड़िए आदमी की सूरत… Continue reading भेड़िए / संजय कुमार कुंदन

मगर क्यूँ नज़्म लिक्खूँ / संजय कुमार कुंदन

अजब सी एक बचकानी-सी ख़्वाहिश है मुहब्बत की कोई इक नज़्म लिक्खूँ किसी माशूक़ की जुल्फों के साए लबों[1] की नर्मियों की थरथराहट लरज़ते काँपते क़दमों की आहट किसी मासूम सीने में छुपी बेबाक धड़कन कोई सहसा-सा कमरा, कोई वीरान आँगन कहीं बाँहों में सिमटी कोई आग़ोश[2] की हसरत किसी एक ख़ास लम्हे में छुपी… Continue reading मगर क्यूँ नज़्म लिक्खूँ / संजय कुमार कुंदन