कई सूरज कई महताब रक्खे / संजय मिश्रा ‘शौक’

कई सूरज कई महताब रक्खे
तेरी आँखों में अपने ख्वाब रक्खे

हरीफों से भी हमने गुफ्तगू में
अवध के सब अदब-आदाब रक्खे

हमारे वास्ते मौजे-बला ने
कई साहिल तहे-गिर्दाब रक्खे

उभरने की न मोहलत दी किसी को
चरागों ने अँधेरे दाब रक्खे

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