मैं बनारस कभी नहीं गया / बसंत त्रिपाठी

हिन्दी का ठेठ कवि अपने जनेऊ या जनेऊनुमा सँस्कार पर हाथ फेरता हुआ चौंकता है मेरी स्वीकारोक्ति पर अय्..बनारस नहीं गए नहीं गए, न सही ज़रूरत आख़िर क्या है ऐसी स्वीकारोक्तियों की इन्हीं बातों से कविता में आरक्षण की प्रबल माँग उठ रही है हुँह..दलित साहित्य..उसने मुँह बनाया मैं बनारस कभी नहीं गया लेकिन वह… Continue reading मैं बनारस कभी नहीं गया / बसंत त्रिपाठी

लोगों हम छान चुके जा के संमुदर सारे / बशीर फ़ारूक़ी

लोगों हम छान चुके जा के संमुदर सारे उस ने मुट्ठी में छुपा रक्खे हैं गौहर सारे ज़ख़्म-ए-दिल जाग उठे फिर वही दिन यार आए फिर तसव्वुर पे उभर आए वो मंज़र सारे तिश्नगी मेरी अजब रेत का मंज़र निकली मेरे होंठों पे हुए ख़ुश्क समुंदर सारे उस को ग़मगीन जो पाया तो मैं कुछ… Continue reading लोगों हम छान चुके जा के संमुदर सारे / बशीर फ़ारूक़ी

अब के जुनूँ में लज़्ज़त-ए-आज़ार भी नहीं / बशीर फ़ारूक़ी

अब के जुनूँ में लज़्ज़त-ए-आज़ार भी नहीं ज़ख़्म-ए-जिगर में सुर्ख़ी-ए-रूख़सार भी नहीं हम तेरे पास आ के परेशान हैं बहुत हम तुझ से दूर रहने को तय्यार भी नहीं ये हुक्म है कि सौंप दो नज़्म-ए-चमन उन्हें नज़्म-ए-चमन से जिन को सरोकार भी नहीं तोड़ा है उस ने दिल को मिरे कितने हुस्न से आवाज़… Continue reading अब के जुनूँ में लज़्ज़त-ए-आज़ार भी नहीं / बशीर फ़ारूक़ी

क़र्ज़ / बशर नवाज़

मोहर होंटों पे समाअत पे बिठा लें पहरे और आँखों को किसी आहनी ताबूत में रख दें कि हमें ज़िंदगी करने की क़ीमत भी चुकानी है यहाँ

अज़ल ता अबद / बशर नवाज़

उफ़ुक़-ता-उफ़ुक़ ये धुँदलके का आलम ये हद-ए-नज़र तक नम-आलूद सी रेत का नर्म क़ालीं कि जिस पर समुंदर की चंचल जवाँ बेटियों ने किसी नक़्श-ए-पा को भी न छोड़ा फ़ज़ा अपने दामन में बोझल ख़मोशी समेटे है लेकिन मचलती हुई मस्त लहरों के होंटों पे नग़्मा है रक़्साँ ये नग़्मा सुना था मुझे याद आता… Continue reading अज़ल ता अबद / बशर नवाज़

रोटी माँग रहे लोगों से / बल्ली सिंह चीमा

रोटी माँग रहे लोगों से, किसको ख़तरा होता है । यार, सुना है लाठी-चारज, हलका-हलका होता है । सिर फोड़ें या टाँगें तोड़ें, ये कानून के रखवाले, देख रहे हैं दर्द कहाँ पर, किसको कितना होता है । बातों-बातों में हम लोगों को वो दब कुछ देते हैं, दिल्ली जा कर देख लो कोई रोज़… Continue reading रोटी माँग रहे लोगों से / बल्ली सिंह चीमा

ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गाँव के / बल्ली सिंह चीमा

ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गाँव के । अब अँधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गाँव के । कह रही है झोपडी औ’ पूछते हैं खेत भी, कब तलक लुटते रहेंगे लोग मेरे गाँव के । बिन लड़े कुछ भी यहाँ मिलता नहीं ये जानकर, अब लड़ाई लड़ रहे हैं लोग मेरे गाँव के… Continue reading ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गाँव के / बल्ली सिंह चीमा

एक झील का टुकड़ा / बलराम ‘गुमाश्ता’

बिना वजह यूँ ही लड़ बैठे लटका बैठे मुखड़ा, दुख में कविता लिखने बैठे- एक झील का टुकड़ा। झील का टुकड़ा बिल्कुल वैसा जैसे होती झील, अभी उड़ा जो, चील का बच्चा वैसी होती चील। शीशे जैसा झील का टुकड़ा गहरा कितना सुंदर, खड़े किनारे कंघी करते देखो कितने बंदर। सैर-सपाटे मछली करती गोली, बिस्कुट… Continue reading एक झील का टुकड़ा / बलराम ‘गुमाश्ता’

आशा कम विश्वास बहुत है / बलबीर सिंह ‘रंग’

जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है । सहसा भूली याद तुम्हारी उर में आग लगा जाती है विरह-ताप भी मधुर मिलन के सोये मेघ जगा जाती है, मुझको आग और पानी में रहने का अभ्यास बहुत है जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है । धन्य-धन्य मेरी लघुता… Continue reading आशा कम विश्वास बहुत है / बलबीर सिंह ‘रंग’

ज़माना आ गया / बलबीर सिंह ‘रंग’

ज़माना आ गया रुसवाइयों तक तुम नहीं आए । जवानी आ गई तनहाइयों तक तुम नहीं आए ।। धरा पर थम गई आँधी, गगन में काँपती बिजली, घटाएँ आ गईं अमराइयों तक तुम नहीं आए । नदी के हाथ निर्झर की मिली पाती समंदर को, सतह भी आ गई गहराइयों तक तुम नहीं आए ।… Continue reading ज़माना आ गया / बलबीर सिंह ‘रंग’