मैं बनारस कभी नहीं गया / बसंत त्रिपाठी

हिन्दी का ठेठ कवि
अपने जनेऊ या जनेऊनुमा सँस्कार पर
हाथ फेरता हुआ
चौंकता है मेरी स्वीकारोक्ति पर
अय्..बनारस नहीं गए
नहीं गए, न सही
ज़रूरत आख़िर क्या है
ऐसी स्वीकारोक्तियों की
इन्हीं बातों से कविता में
आरक्षण की प्रबल माँग उठ रही है
हुँह..दलित साहित्य..उसने मुँह बनाया

मैं बनारस कभी नहीं गया
लेकिन वह मुझे कविताओं में मिला
कर्मकाण्डी पिता की अतृप्त इच्छाओं में मिला
माँ कमर के दर्द से परेशान हो
नींद में अक्सर चीख़-चीख़ उठती है
बनारस..बनारस..

कबीर यहीं से कुढ़कर
मगहर की ओर निकल गए थे
उसे पण्डों, लुटेरों, दलालों,
गंगा और माणिकर्णिका को सौंप

अभी कुछ दिन पहले की बात है
पटना जाते हुए रास्ते में
उसका रेलवे स्टेशन मिला था
बिल्कुल सुबह साढ़े पाँच का वक़्त
बनारस जाग रहा था
उसके ऊपर का कुहरीला आवरण
धीरे-धीरे खींच रहा था सूरज

स्टेशन की उस गहमागहमी में
मैंने एक अधेड़ को निर्लिप्त पेशाब करते देखा
यह जान रहिए
कि वह प्लेटफ़ार्म पर खड़े होकर
पटरियों पर पेशाब नहीं कर रहा था
चलते-चलते सहसा रुका
और प्लेटफार्म पर पेशाब करने लगा

मुझे वह अजीब लगा
मुझे बनारस ही अजीब-सा लगा
गन्दा, अराजक, अव्यवस्थित और दम्भी
स्टेशन की खिड़की से मैंने बनारस को देखा
और मुझे दहशत हुई
इसलिए
मैं बनारस कभी नहीं गया ।