मैं एक ठहरे हुए पल में जी रहा हूँ / बसंत त्रिपाठी

मैं एक ठहरे हुए पल में जी रहा हूँ कवि हूँ खादी पहनता हूँ, बहस करता हूँ फ़िल्में देखता हूँ, शराब पीता हूँ बचे समय में अपनी कारगुजारियों को सही साबित करने की कवायद करता हूँ मैं एक ठहरे हुए पल में जी रहा हूँ यद्यपि कुछ भी ठहरा हुआ नहीं तेज़ी से घूम रहे… Continue reading मैं एक ठहरे हुए पल में जी रहा हूँ / बसंत त्रिपाठी

मैं बनारस कभी नहीं गया / बसंत त्रिपाठी

हिन्दी का ठेठ कवि अपने जनेऊ या जनेऊनुमा सँस्कार पर हाथ फेरता हुआ चौंकता है मेरी स्वीकारोक्ति पर अय्..बनारस नहीं गए नहीं गए, न सही ज़रूरत आख़िर क्या है ऐसी स्वीकारोक्तियों की इन्हीं बातों से कविता में आरक्षण की प्रबल माँग उठ रही है हुँह..दलित साहित्य..उसने मुँह बनाया मैं बनारस कभी नहीं गया लेकिन वह… Continue reading मैं बनारस कभी नहीं गया / बसंत त्रिपाठी