सबसे पहले सारस के पंखों-सा दूधिया कोरा काग़ज़ दो फिर एक क़लम जिसकी स्याही में घुला हो असँख्य काली रातों का अँधकार थोड़ी-सी आग गोरसी की थोड़ा-सा धुआँ थोड़ा-सा जल आँखों का जो सपनों की जड़ों में भी बचा हो मुझे दो कविता लिखने के लिए हज़ारों झुके सिरों के बीच एक उठा हाथ हज़ारों… Continue reading कविता की ज़रूरत-1 / एकांत श्रीवास्तव
Category: Ekant Shrivastava
सूरजमुखी का फूल / एकांत श्रीवास्तव
फिर आ गए है फूल सूरजमुखी के भोर के गुलाबी आईने में झाँकते चीन्हते जानी-पहचानी धरती जैसे द्वार पर पहुँचे हुए पाहुन वे आ गये हैं इस बार भी अपने समय पर जब सिर्फ सूचनाएँ आ रही हैं हत्या की बाढ़, अकाल और महामारी में मरने वाले लोगों की देखते-देखते एक बसे बसाए शहर के… Continue reading सूरजमुखी का फूल / एकांत श्रीवास्तव
मैं / एकांत श्रीवास्तव
मैं गेहूँ का पका खेत हूँ चिडियो! मुझे चुग लो मैं वीरान जंगल का झरना हूँ मुसाफिर! मुझमें नहा लो मैं आषाढ़ का पानी हूँ पहाड़ो! मुझे गिरा दो मैं खलिहान का बुझा हुआ दिया हूँ माँ! मुझे जला दो मैं जल में सोया संगीत हूँ पवन! मुझे जगा दो मैं क्रोध का ठंडा पत्थर… Continue reading मैं / एकांत श्रीवास्तव
पुकार / एकांत श्रीवास्तव
बरसों से एक पुकार मेरा पीछा कर रही है एक महीन और मार्मिक पुकार इस महानगर में भी मैं इसे साफ-साफ सुन सकता हूँ। आज जब यह पहली बारिश के बाद धरती की सोंधी सुगंध की तरह हर तरु से उठ रही है मैं एकदम बेचैन और अवश हो गया हूँ इसके सामने क्या यह… Continue reading पुकार / एकांत श्रीवास्तव
ओ पृथ्वी-2 / एकांत श्रीवास्तव
अपनी धुरी के साथ-साथ घूमती हमारी नींद में भी अजस्र सपनों से भरी ओ पृथ्वी! मुझे दे आज यह वचन कि मुझमें तू रहे शताब्दियों तक हवा, धूप और संगीत की तरह मैं रहूँ तेरे झरनों की गुनगुनाहट और उसके जल की मिठास में तेरे पतझड़ का एक पत्ता तेरे वसन्त का एक पलाश और… Continue reading ओ पृथ्वी-2 / एकांत श्रीवास्तव
ओ पृथ्वी-1 / एकांत श्रीवास्तव
हमारी आँखों में कसमसा रहा है जल ओ पृथ्वी अभी रहेगा तेरा हरापन तेरी कोख में सोया हुआ बीज पौधा भी बनेगा, पेड़ भी आँसुओं में नमक की तरह घुल गया है गुस्सा ओ पृथ्वी अभी रहेगी तेरी ऊष्मा पककर तैयार होंगे जिसमें कुम्हार के घड़ों की तरह हमारे सपने धीरे-धीरे सही टूट रहा है… Continue reading ओ पृथ्वी-1 / एकांत श्रीवास्तव
नए साल का गीत / एकांत श्रीवास्तव
जेठ की धूप में तपी हुई आषाढ़ की फुहारों में भीगकर कार्तिक और अगहन के फूलों को पार करती हुई यह घूमती हुई पृथ्वी आज सामने आ गयी है नये साल की देहरी के तीन सौ पैंसठ जंगलों तीन सौ पैंसठ नदियों तीन सौ पैंसठ दुर्गम घाटियों को पार करने के बाद आज यह घूमती… Continue reading नए साल का गीत / एकांत श्रीवास्तव
दुनिया में रहकर भी / एकांत श्रीवास्तव
शरद आया तो मैं कपास हुआ मां के दिये की बाती के लिए धूप में जलते पांवों के लिए जंगल हुआ घनी छाया, मीठे फलों और झरनों से भरा लोककथाओं के रोमांच में सिहरता हुआ मोर पंख हुआ छोटी बहन की उम्र की किताब में दबा छोटे भाई के कुर्ते की जेब के सन्नाटे में… Continue reading दुनिया में रहकर भी / एकांत श्रीवास्तव
रंग : छह कविताएँ-6 (हरा) / एकांत श्रीवास्तव
साइबेरिया की घास हो या अफ्रीका के जंगल या पहाड़ हों सतपुड़ा-विंध्य के दुनिया भर की वनस्पति का एक नाम है यह रंग इस रंग का होना इस विश्वास का होना है कि जब तक यह है दुनिया हरी-भरी ह यह रंग जंगली तोतों के उस झुण्ड का है जो मीठे फलों पर छोड़ जाता… Continue reading रंग : छह कविताएँ-6 (हरा) / एकांत श्रीवास्तव
रंग : छह कविताएँ-5 (काला) / एकांत श्रीवास्तव
इस रंग से लिपटकर अभी सोये हैं धरती के भीतर कपास और सीताफल के बीज दिया-बाती के बाद इसी रंग को सौंप देते हैं हम अपने दिन भर की थकान और उधार ले लेते हैं ज़रा-सी नींद यह रंग दोने में भरे उन जामुनों का है जो बाज़ार में बिककर न जाने कितने घरों के… Continue reading रंग : छह कविताएँ-5 (काला) / एकांत श्रीवास्तव