पुकार / एकांत श्रीवास्तव

बरसों से एक पुकार
मेरा पीछा कर रही है
एक महीन और मार्मिक पुकार
इस महानगर में भी
मैं इसे साफ-साफ सुन सकता हूँ।

आज जब यह पहली बारिश के बाद
धरती की सोंधी सुगंध की तरह
हर तरु से उठ रही है
मैं एकदम बेचैन और अवश
हो गया हूँ इसके सामने

क्‍या यह जड़ों की पुकार है
फुनगियों के लिए?
क्‍या यह डूबते दिन की पुकार है
पखेरूओं के लिए?

यह उस रास्‍ते की पुकार हो सकती है
जिसे अभी लौटने को कहकर
मैं छोड़ आया हूँ

यह पहाड़ों में भटकती कंदील की पुकार होगी

यह माँ की पुकार होगी
मैं बरसों से घर नहीं लौटा।

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