ओ पृथ्वी-2 / एकांत श्रीवास्तव

अपनी धुरी के साथ-साथ
घूमती हमारी नींद में भी
अजस्र सपनों से भरी ओ पृथ्‍वी!
मुझे दे आज यह वचन
कि मुझमें तू रहे शताब्दियों तक
हवा, धूप और संगीत की तरह

मैं रहूँ तेरे झरनों की गुनगुनाहट
और उसके जल की मिठास में
तेरे पतझड़ का एक पत्‍ता
तेरे वसन्‍त का एक पलाश
और लाखों-लाख बरस की तेरी उम्र में
एक दिन का प्रकाश

तेरे खेतों की बालियों का
एक अदद दाना मैं रहूँ
जो लुढ़क रहा हो
पक्षियों की नींद में

जब घिर आए
थकान और अंधकार से भरी साँझ
उड़ने लगे पराजय की धूल और पत्‍ते
सिर टिकाने को मिले
हमें तेरा ही कंधा

ऊर्जा दे मुझे ओ पृथ्‍वी
कि हम चुकायें
बरसों-बरसों का बकाया
तेरे अन्‍न-जल का ऋण।

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