दुनिया में रहकर भी / एकांत श्रीवास्तव

शरद आया तो मैं कपास हुआ
मां के दिये की बाती के लिए
धूप में जलते पांवों के लिए जंगल हुआ
घनी छाया, मीठे फलों और झरनों से भरा
लोककथाओं के रोमांच में सिहरता हुआ

मोर पंख हुआ छोटी बहन की उम्र की किताब में दबा
छोटे भाई के कुर्ते की जेब के सन्‍नाटे में
पांच का एक नया कड़कड़ाता नोट हुआ

किसी की बूढ़ी आंखों का चश्‍मा हुआ
उनकी एक सुबह के समाचारों के लायक
किसी के इंतजार के सूने पेड़ पर
कौआ हुआ बोलता हुआ और उड़ गया

सबकी इच्‍छाओं और सपनों के अनुसार
मैं सब हुआ
पर हाय! दुनिया में रहकर भी
दुनियादार न हुआ.

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