शब्द-3 / एकांत श्रीवास्तव

जब भी लड़खड़ाता हूँ गिरने से पहले मुझे थाम लेते हैं मेरे शब्‍द दोस्‍तों की तरह लपककर घर से निकलने के पहले पूछते हैं- कुछ खाया कि नहीं? लौटने पर आते हैं पड़ोसियों की तरह-‘आपकी चिट्ठी’ मेरे शब्‍दों को ढूँढते हैं आतताई कि इनमें छिपी हैं उनकी साजिशें शब्‍द पुराने तारों की तरह बचाकर रखते… Continue reading शब्द-3 / एकांत श्रीवास्तव

शब्द-2 / एकांत श्रीवास्तव

ये शब्‍द हैं जो पक रहे हैं एक बच्‍चा अपनी मुट्ठी में भींच रहा है पत्‍थर कि शब्‍द पकें और वह फेंके एक चिड़िया का कंठ इंतज़ार में है कि शब्‍द पकें और वह गाए और शब्‍द पक रहे हैं पूरे इत्‍मीनान से चौंक रहा है जंगल हड़बड़ा रहे हैं पहाड़ कि शब्‍द पक रहे… Continue reading शब्द-2 / एकांत श्रीवास्तव

शब्द-1 / एकांत श्रीवास्तव

शब्‍द आग हैं जिनकी आँच में सिंक रही है धरती जिनकी रोशनी में गा रहे हैं हम काटते हुए एक लम्‍बी रात शब्‍द पत्‍थर हैं हमारे हाथ के शब्‍द धार हैं हमारे औजार की हमारे हर दुख में हमारे साथ शब्‍द दोस्‍त हैं जिनसे कह सकते हैं हम बिना किसी हिचक के अपनी हर तकलीफ़… Continue reading शब्द-1 / एकांत श्रीवास्तव

जीना है / एकांत श्रीवास्तव

फूलों की आत्‍मा में बसी ख़ुशबू की तरह जीना है अभी बहुत-बहुत बरस मुश्किलों को उठाना है पत्‍थरों की तरह और फेंक देना है जल में ‘छपाक’ से हँसना है बार-बार चुकाना है बरसों से बकाया पिछले दुखों का ऋण पोंछना है पृथ्‍वी के चेहरे से अँधेरे का रँग पानी की आँखों में पूरब का… Continue reading जीना है / एकांत श्रीवास्तव

पानी / एकांत श्रीवास्तव

यह एक आईना है सबसे पहले सूर्य देखता है इसमें अपना चेहरा फिर पेड़ झाँकते हैं और एक चिड़िया चोंच मारकर इसे उड़ेलती है अपने कंठ में मैं इसमें देख सकता हूं अपना चेहरा और पिछले कई दिनों की उदासी के बाद मुसकुरा सकता हूँ यह दुनिया की हर उदास चीज़ को देता है अपनी… Continue reading पानी / एकांत श्रीवास्तव

पतझड़-2 / एकांत श्रीवास्तव

पतझड़ में किस चीज़ के बारे में सोचते हैं आप सबसे ज़्यादा क्‍या आप साइकिल के अगले टायर को लेकर परेशान हैं जिसका बदलना अब नितान्‍त ज़रूरी हो गया है? या परेशान हैं घुटनों के दर्द से जो प्रायः इसी मौसम में जकड़ लेता है आपको? मैं चाहता हूँ कि आप अपनी व्‍यस्‍तता से बस… Continue reading पतझड़-2 / एकांत श्रीवास्तव

पतझड़-1 / एकांत श्रीवास्तव

हम दोनों धरती के अलग-अलग छोरों पर अलग-अलग अँधेरे में देखते हैं पीले पत्‍तों का झड़ना झड़ने से पहले उनका पीला पड़ना उससे भी पहले उनका गृहस्‍थ से वानप्रस्‍थ के लिए तैयार होना सुनो! तुम्‍हारे पतझड़ के पत्‍ते उड़कर आ गए हैं मेरे पतझड़ में क्‍या मेरे पतझड़ के पत्‍ते भी तुम्‍हारे पतझड़ में भटक… Continue reading पतझड़-1 / एकांत श्रीवास्तव

पुराने रास्ते / एकांत श्रीवास्तव

किनारे के पेड़ वही हैं बस थोड़े सयाने हो गए हैं ब्‍याह करने लायक बच्‍चों की तरह पहले से ज़्यादा चुप हैं तपस्‍वी बरगद हवा चलने पर सिर्फ़ उसकी जटाएँ लहराती हैं कभी-कभी खम्‍हार के पके पत्‍तों-सी धीरे-धीरे हिल रही है दोपहर घर वही हैं लेकिन कुछ गिर गए हैं कुछ बन गए हैं नए… Continue reading पुराने रास्ते / एकांत श्रीवास्तव

अमरकंटक / एकांत श्रीवास्तव

बरसों से नर्मदा के जल में एकटक देख रहा है अपना चेहरा यह शहर इसके सपने विन्‍ध्‍याचल की नींद में टहल रहे हैं और यह स्‍वयं एक मीठे सपने की तरह बसा है नर्मदा की जल भरी आँखों में बरसों से जुड़े हैं इस शहर के हाथ और काँप रहे हैं होंठ ‘नर्मदे हर’ यह… Continue reading अमरकंटक / एकांत श्रीवास्तव

कविता की ज़रूरत-2 / एकांत श्रीवास्तव

जिस समय जाल पानी में फेंका जा चुका होगा जिस समय बीज खेतों में बोए जा चुके होंगे जिस समय एक नाव नदी की सबसे तेज़ धार को काट रही होगी उसी समय उसी समय पैदा होगी कविता की ज़रूरत जिस समय पकते फलों की सुगंध से बेचैन हो उतरेंगे वृक्षों पर जंगली तोते बाढ़… Continue reading कविता की ज़रूरत-2 / एकांत श्रीवास्तव