खाने-खेलने की उम्र में कूडे़ के ढेर पर पोलीथिन बीनते बच्चे अपने देश के नहीं जैसे जापान के बच्चे हैं और उनकी धँसी हुई आँखें पांजर में सटा हुआ पेट और जिस्म पर दिखती हड्डियों की रेखाएँ? अपने देश की नहीं बल्कि सोमालिया की हैं और उनकी अर्जित की हुई संपत्ति? अपने देश भारत की… Continue reading वाह रे भारत महान / पंकज चौधरी
कुछ चीज़ें अब भी अच्छी हैं / पंकज चतुर्वेदी
कुछ चीज़ें अब भी अच्छी हैं न यात्रा अच्छी है न ट्रेन के भीतर की परिस्थिति लेकिन गाड़ी नम्बर गाड़ी के आने और जाने के समय की सूचना देती तुम्हारी आवाज़ अच्छी है कुछ चीज़ें अब भी अच्छी हैं
न मेरे पास / पंकज चतुर्वेदी
न मेरे पास मोरपंख का मुकुट था न धनुष तोड़ने का पराक्रम कंठ भी निरा कंठ ही था किसी के ज़हर से नीला न हो सका क्षीरसागर में बिछी हुई सुखद शय्या नहीं थी नहीं थी सम्पत्ति से मैत्री देवताओं में इर्ष्या जगानेवाली ऐसी तपस्या न थी जिसे भंग करने के लिए तुम्हारे प्रेम का… Continue reading न मेरे पास / पंकज चतुर्वेदी
शाम के साहिल से उठकर चल दिए / ओम प्रभाकर
शाम के साहिल से उठकर चल दिए दिन समेटा, रात के घर चल दिए। हर तरफ़ से लौटकर आख़िर तभी तेरे मक़्तल की तरफ़ सर चल दिए। इक अज़ाने बेनवा ऎसी उठी झूम कर मिनारो-मिम्बर चल दिए। है उफ़क के पार सबका आशियाँ ये सुना तो सारे बेघर चल दिए। छू गए गर तेरे दामन… Continue reading शाम के साहिल से उठकर चल दिए / ओम प्रभाकर
ख़्वाब में तो यहीं कहीं देखा / ओम प्रभाकर
ख़्वाब में यहीं कहीं देखा वैसे, कब से तुम्हें नहीं देखा। था न मुमकिन जहाँ कोई मंज़र मैंने शायद तुम्हें वहीं देखा। मैंने तुमको तुम्हीं में देखा है और किसी में कभी नहीं देखा। टुक ख़यालों में, टुक सराबों में टुक उफ़क में कहीं नहीं देखा। उन दिनों भी यहीं थे, दिल की जगह लौटकर… Continue reading ख़्वाब में तो यहीं कहीं देखा / ओम प्रभाकर
इस क़दर अन्देशा-ए-वह्म-ओ-गुमाँ देखा न था / ओम प्रकाश नदीम
इस क़दर अन्देशा-ए-वह्म-ओ-गुमाँ[1] देखा न था । आग के इज़हार से पहले धुआँ देखा न था । अपनी छत के दायरे में क़ैद थी उसकी उड़ान, बे हिसार-ओ-सम्त[2] उसने आसमाँ देखा न था । वो तअल्लुक़ तोड़ कर भी ख़ुश है मैं हैरान हूँ, बेहिसी[3] को मैंने इतना शादमाँ[4] देखा न था । अपनी बीनाई[5]… Continue reading इस क़दर अन्देशा-ए-वह्म-ओ-गुमाँ देखा न था / ओम प्रकाश नदीम
आग लगने से धुआँ माहौल पर छाया तमाम / ओम प्रकाश नदीम
आग लगने से धुआँ माहौल पर छाया तमाम । बात मामूली थी लेकिन ज़ह्न ने सोचा तमाम । चोट तो बस ऊँचे-ऊँचे पर्वतों पर की गई, और नीचे ख़ून में लथपथ हुए दरिया तमाम । धीरे-धीरे बढ़ रही थी प्यार के दीपक की लौ, एक झोंके ने तुम्हारे कर दिया क़िस्सा तमाम । मुझसे मिल… Continue reading आग लगने से धुआँ माहौल पर छाया तमाम / ओम प्रकाश नदीम
तोता एंड मैना / ओम प्रकाश ‘आदित्य’
भारत में एक दिल्ली है, जहाँ क़ुतुब की बिल्ली है। दिल्ली के कुछ हिस्से हैं, सबके अपने किस्से हैं। एक पुरानी एक नई, दोनों सम्मुख देख गई। कनाट प्लेस है एक यहाँ, चलते हैं दिलफेंक यहाँ। ये गुलाब का लिली का, नई पुरानी दिल्ली का। सबसे सुन्दर हिस्सा है, उसी जगह का किस्सा है। सांझ… Continue reading तोता एंड मैना / ओम प्रकाश ‘आदित्य’
इधर भी गधे हैं, उधर भी गधे हैं / ओम प्रकाश ‘आदित्य’
इधर भी गधे हैं, उधर भी गधे हैं जिधर देखता हूं, गधे ही गधे हैं गधे हँस रहे, आदमी रो रहा है हिन्दोस्तां में ये क्या हो रहा है जवानी का आलम गधों के लिये है ये रसिया, ये बालम गधों के लिये है ये दिल्ली, ये पालम गधों के लिये है ये संसार सालम… Continue reading इधर भी गधे हैं, उधर भी गधे हैं / ओम प्रकाश ‘आदित्य’
आ ऋतुराज! / ओम पुरोहित ‘कागद’
आ ऋतुराज ! पेड़ों की नंगी टहनियां देख, तू क्यों लाया हरित पल्लव बासंती परिधान ? अपने कुल, अपने वर्ग का मोह त्याग, आ,ऋतुराज! विदाउट ड्रेस मुर्गा बने पीरिये के रामले को सजा मुक्त कर दे। पहिना दे भले ही परित्यक्त, पतझड़िया, बासी परिधान। क्यों लगता है लताओं को पेड़ों के सान्निध्य में ? उनको… Continue reading आ ऋतुराज! / ओम पुरोहित ‘कागद’