शाम के साहिल से उठकर चल दिए / ओम प्रभाकर

शाम के साहिल से उठकर चल दिए दिन समेटा, रात के घर चल दिए। हर तरफ़ से लौटकर आख़िर तभी तेरे मक़्तल की तरफ़ सर चल दिए। इक अज़ाने बेनवा ऎसी उठी झूम कर मिनारो-मिम्बर चल दिए। है उफ़क के पार सबका आशियाँ ये सुना तो सारे बेघर चल दिए। छू गए गर तेरे दामन… Continue reading शाम के साहिल से उठकर चल दिए / ओम प्रभाकर

ख़्वाब में तो यहीं कहीं देखा / ओम प्रभाकर

ख़्वाब में यहीं कहीं देखा वैसे, कब से तुम्हें नहीं देखा। था न मुमकिन जहाँ कोई मंज़र मैंने शायद तुम्हें वहीं देखा। मैंने तुमको तुम्हीं में देखा है और किसी में कभी नहीं देखा। टुक ख़यालों में, टुक सराबों में टुक उफ़क में कहीं नहीं देखा। उन दिनों भी यहीं थे, दिल की जगह लौटकर… Continue reading ख़्वाब में तो यहीं कहीं देखा / ओम प्रभाकर