इस क़दर अन्देशा-ए-वह्म-ओ-गुमाँ देखा न था / ओम प्रकाश नदीम

इस क़दर अन्देशा-ए-वह्म-ओ-गुमाँ[1] देखा न था । आग के इज़हार से पहले धुआँ देखा न था । अपनी छत के दायरे में क़ैद थी उसकी उड़ान, बे हिसार-ओ-सम्त[2] उसने आसमाँ देखा न था । वो तअल्लुक़ तोड़ कर भी ख़ुश है मैं हैरान हूँ, बेहिसी[3] को मैंने इतना शादमाँ[4] देखा न था । अपनी बीनाई[5]… Continue reading इस क़दर अन्देशा-ए-वह्म-ओ-गुमाँ देखा न था / ओम प्रकाश नदीम

आग लगने से धुआँ माहौल पर छाया तमाम / ओम प्रकाश नदीम

आग लगने से धुआँ माहौल पर छाया तमाम । बात मामूली थी लेकिन ज़ह्न ने सोचा तमाम । चोट तो बस ऊँचे-ऊँचे पर्वतों पर की गई, और नीचे ख़ून में लथपथ हुए दरिया तमाम । धीरे-धीरे बढ़ रही थी प्यार के दीपक की लौ, एक झोंके ने तुम्हारे कर दिया क़िस्सा तमाम । मुझसे मिल… Continue reading आग लगने से धुआँ माहौल पर छाया तमाम / ओम प्रकाश नदीम