आ ऋतुराज! / ओम पुरोहित ‘कागद’

आ ऋतुराज !
पेड़ों की नंगी टहनियां देख,
तू क्यों लाया
हरित पल्लव
बासंती परिधान ?

अपने कुल,
अपने वर्ग का मोह त्याग,
आ,ऋतुराज!
विदाउट ड्रेस
मुर्गा बने
पीरिये के रामले को
सजा मुक्त कर दे।
पहिना दे भले ही
परित्यक्त,
पतझड़िया,
बासी परिधान।

क्यों लगता है लताओं को
पेड़ों के सान्निध्य में ?
उनको आलिंगनबद्ध करता है।
अहंकार में
आकाश की तरफ तनी
लताओं के भाल को
रक्तिम बिन्दिया लगा,
क्यों नवोढ़ा सी सजाता है ?

आ ऋतुराज !
बाप की खाली अंटी पर
आंसू टळकाती,
सुरजी की अधबूढ़ी बिमली के
बस,
हाथ पीले कर दे।
पहिना दे भले ही
धानी सा एक सुहाग जोड़ा।

तूं कहां है-
डोलती बयार में,
सूरज की किरणों में ?
कब आता है ?
कब जाता है
विशाल प्रकति को ?
लेकिन तू आता है
आधीरात के चोर सा ;
यह शाश्वत सत्य है।

तेरी इस चोर प्रवृति पर
मुझे कोई ऐतराज नहीं,
पर चाहता हूं ;
थोड़ा ही सही
आ ऋतुराज
खाली होने के कारण,
आगे झुकते
नत्थू के पेट में कुछ भर दे।
भर दे भले ही,
रात के सन्नाटे में
पत्थर का परोसा।

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