फ़लासिफ़ा सिर्फ़ इतना ही है कि असीम नफ़रत असीम पीड़ा या असीम प्रेम से निकलती है गोली, ग़ाली या फिर कविता
अश्क में भी हँसी है-2 / वर्तिका नन्दा
पानी में जिस दिन किश्ती चली थी तुम तब साथ थे तब डूबते-डूबते भी लगा था पानी क्या बिगाड़ लेगा
अश्क में भी हँसी है-1 / वर्तिका नन्दा
लगता है दिल का एक टुकड़ा रानीखेत के उस बड़े मैदान के पास पेड़ की छाँव के नीचे ही रह गया उस टुकड़े ने प्यार देखा था उसे वहीं रहने दो वो कम से कम सुखी तो है
नज़र आना साबुत / वरयाम सिंह
तो मैं साबुत नज़र आ रहा हूँ आपको। कृपया आप अपनी आँखों से मुझे अपने को देखने दें देखने दें किस तरह टुकड़ा-टुकड़ा हुआ आदमी नज़र आता है साबुत। कृपया मुझे बताएँ यदि मैं साबुत हूँ तो अपने को टुकड़ा-टुकड़ा हुआ क्यों समझ रहा हूँ। देखो– यह मेरा हृदय है पर इसमें प्रेम कहीं नहीं… Continue reading नज़र आना साबुत / वरयाम सिंह
एक ही जगह पर / वरयाम सिंह
यह क़दमताल था हर क़दमताल की तरह एक ही जगह पर । झण्डा भी लहरा रहा था मुस्तैदी से एक ही जगह पर । नेता भी खड़ा था एक ही जगह पर तमाम उपलब्धियाँ, तमाम सफलताएँ, तरह-तरह के दस्तावेज़ों में पेश हो रही थीं एक ही जगह पर । कितना सुकून मिल रहा है जिन्हें… Continue reading एक ही जगह पर / वरयाम सिंह
फिर वही किस्सा / वत्सला पाण्डे
वही किस्सा फिर सुनाने लगे तुम जिसकी आवाज़ से भागती रही हमेशा जिसे भूल जाना चाहती रही मैं सदा किस्सा जो हो नहीं सकता कभी पूरा जाग गई इच्छा तब क्या करूंगी मैं मत जगाओ इतना कि तरसती ही रहूं नींद के लिए सदा सुनाना ही है तब सुनाओ वही किस्सा कि उनींदी रहूं सदा
आज तक / वत्सला पाण्डे
एक दिन तुम्हें कह बैठी सूरज जल रही मैं आज तक बर्फीले लोग सीली धरती रह गए तुम्हारे साथ उन अंधेरों को भी ले गया होगा तुम्हारा ही साया पर झुलसते गए मन के कोने इन्हीं को अपना कहती रही आज तक कब तक जलती रहूं तुम्हारी आग में होने लगी हूं बर्फ क्या जानने… Continue reading आज तक / वत्सला पाण्डे
धूप के साथ गया साथ निभाने वाला / वज़ीर आग़ा
धूप के साथ गया, साथ निभाने वाला अब कहाँ आएगा वो, लौट के आने वाला रेत पर छोड़ गया, नक़्श हज़ारों अपने किसी पागल की तरह, नक़्श मिटाने वाला सब्ज़[1] शाखें कभी, ऐसे तो नहीं चीखतीं हैं कौन आया है, परिंदों को डराने वाला आरिज़-ए-शाम[2] की सुर्ख़ी ने, किया फ़ाश उसे पर्दा-ए-अब्र[3] में था, आग… Continue reading धूप के साथ गया साथ निभाने वाला / वज़ीर आग़ा
सितम हवा का अगर तेरे तन को रास नहीं / वज़ीर आग़ा
सितम हवा का अगर तेरे तन को रास नहीं कहाँ से लाऊँ वो झोंका जो मेरे पास नहीं पिघल चुका हूँ तमाज़त[1] में आफ़ताब की मैं मेरा वजूद भी अब मेरे आस-पास नहीं मेरे नसीब में कब थी बरहनगी[2] अपनी मिली वो मुझ को तमन्ना की बे-लिबास नहीं किधर से उतरे कहाँ आ के तुझसे… Continue reading सितम हवा का अगर तेरे तन को रास नहीं / वज़ीर आग़ा
अब्र हैं दीदा-ए-पुर-आब से हम / वज़ीर अली ‘सबा’ लखनवी
अब्र हैं दीदा-ए-पुर-आब से हम बर्क़ हैं दिल के इजि़्तराब से हम सौ तरह की गरज़ निकलती है क्यूँ न मतलब रखें जनाब से हम दम में मौज-ए-फना मिटा देगी बहर-ए-हस्ती में हैं हुबाब से हम बे-वफाओं से है वफ़ा मतलूब तालिब-ए-आब हैं सराब से हम जिंदगी हो गई अज़ाब हमें गुज़रे ज़ाहिद तेरे सवाब… Continue reading अब्र हैं दीदा-ए-पुर-आब से हम / वज़ीर अली ‘सबा’ लखनवी