सितम हवा का अगर तेरे तन को रास नहीं / वज़ीर आग़ा

सितम हवा का अगर तेरे तन को रास नहीं
कहाँ से लाऊँ वो झोंका जो मेरे पास नहीं

पिघल चुका हूँ तमाज़त[1] में आफ़ताब की मैं
मेरा वजूद भी अब मेरे आस-पास नहीं

मेरे नसीब में कब थी बरहनगी[2] अपनी
मिली वो मुझ को तमन्ना की बे-लिबास नहीं

किधर से उतरे कहाँ आ के तुझसे मिल जाए
अभी नदी के चलन से तू रु-शनास[3] नहीं

खुला पड़ा है समंदर किताब की सूरत
वही पढ़े इसे आकर जो ना-शनास नहीं

लहू के साथ गई तन-बदन की सब चहकार
चुभन सबा में नहीं है कली में बास नहीं

शब्दार्थ:
1. गर्मी
2. नग्नता
3. वाकिफ़