नई औरत / पंखुरी सिन्हा

वह क्षण भर भी नहीं उसका एक बारीक़-सा टुकड़ा था बस, जब लगाम मेरे हाथ से छूट गई थी, और सारी सड़क की भीड़ के साथ-साथ गाड़ियों के अलग-अलग हार्न की मिली जुली चीख़ के बीचोंबीच, अचानक ब्रेक लगने से घिसटकर रुकते टायरों के नीचे से, लाल हो गई ट्रैफ़िक की बत्ती के ऊपर से,… Continue reading नई औरत / पंखुरी सिन्हा

लिफाफा / पंकज सुबीर

तुमने कहा था मेरे सारे पत्रों को जला देना मैंने वैसा ही किया प्रश्नी उस विश्वास का था जिसके चलते वो पत्र लिखे गये थे विश्वास करो मैंने सारे पत्र जला दिये केवल एक लिफाफा बचा लिया है तुम्हारे पहले पत्र का लिफाफा इस पर लिखा है मेरा नाम जो शायद तुमने पहली बार लिखा… Continue reading लिफाफा / पंकज सुबीर

घर / पंकज सुबीर

मेरा घर बुढ़ाने लगा है खांसती हैं दीवारे आजकल रात भर हालंकि डरती हैं कि कहीं मेरी नींद न टूट जाए इसलिये शायद लिहाफ में मुंह दबा कर खांसती हैं फिर भी मैं सुन लेता हूं और जान लेता हूं कि मेरा घर बूढ़ा होता जा रहा है

पश्चात सच / पंकज सिंह

धब्बों भरी एक चीख़ अटकी मिली मृतक के स्वरयंत्र में टूटे हुए शब्दों में लिपटी जो जकड़ा था इर्द-गिर्द उसके श्लेष्मा की तरह वह किश्तों में निगला भय था लगभग प्रस्तरीभूत जिसने उसके सारे कहे को नागरिक बनाया था जीवन भर उसके विराट और महान लोकतंत्र की सेवा में (रचनाकाल : 1967)

शरद के बादल / पंकज सिंह

फिर सताने आ गए हैं शरद के बादल धूप हल्की-सी बनी है स्वप्न क्यों भला ये आ गए हैं यों सताने शरद के बादल धैर्य धरती का परखने और सूखी हड्डियों में कंप भरने हवाओं की तेज़ छुरियाँ लपलपाते आ गए हैं शरद के बादल (रचनाकाल : 1966)

बारिश-2 / पंकज राग

वह साठ का दशक था मैं नया-नया पैदा हुआ था और मुझे यह सोचना अच्छा लगता है, कि उस वक़्त रेडियो पर मैंने भी सुना होगा किसी फ़िल्मी गीत मेम सौ-सौ वायलिनों को एक साथ बजते अपनी माँ के साथ बहुत सुरक्षित-सा चिपके हुए मेरे लिए शायद वही पहली बारिश की आवाज़ थी ।

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बारिश-1 / पंकज राग

बारिश का तेज पीटता है सड़कों को जैसे कई-कई देवता पीट रहे हों मनुष्यों को बार-बार गिरते हों उस पर और धराशायी करते हों जैसे उठा हुआ एक हाथ वज्रपात कर रहा हो सदी पर जैसे छोटे-छोटे घरों में गीले-गीले हादसों से जल्दी-जल्दी होने लगा हो नदियों का जन्म जैसे इन्द्र की तनी हुई भौं… Continue reading बारिश-1 / पंकज राग

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समुद्र-2 / पंकज परिमल

समुद्र को मथ कर लोग सुरा भी ले गए और सुधा भी घोड़े भी ले गए और हाथी भी लक्ष्मी भी ले गए और जड़ी-बूटी संभालकर वैद्यराज धन्वन्तरि भी रफू-चक्कर हो गए समुद्र को उस क्षण मर जाने की इच्छा हुई पर हाय। उसके हिस्से में तो हलाहल भी नहीं बचा

समुद्र-1 / पंकज परिमल

सबसे ज्यादा मुश्किल समुद्र के सामने थी उसके पास तो सभी आते थे पर उसे कहीं जाना नहीं था उसके पास सबसे ज्यादा रत्न थे और उसकी छाती पर सबसे ज्यादा डाकुओं के जहाज सूरज उसे सोखता था तो मौज आती थी पोखरों, तालाबों और नदियों की नदियां तो उसका हिस्सा ईमानदारी से ले आती… Continue reading समुद्र-1 / पंकज परिमल

अज़ाब ये भी किसी और पर नहीं आया / इफ़्तिख़ार आरिफ़

अज़ाब ये भी किसी और पर नहीं आया के एक उम्र चले और घर नहीं आया इस एक ख़्वाब की हसरत में जल बुझीं आँखें वो एक ख़्वाब के अब तक नज़र नहीं आया करें तो किस से करें ना-रसाइयों का गिला सफ़र तमाम हुआ हम-सफ़र नहीं आया दिलों की बात बदन की ज़बाँ से… Continue reading अज़ाब ये भी किसी और पर नहीं आया / इफ़्तिख़ार आरिफ़