धब्बों भरी एक चीख़ अटकी मिली मृतक के स्वरयंत्र में टूटे हुए शब्दों में लिपटी जो जकड़ा था इर्द-गिर्द उसके श्लेष्मा की तरह वह किश्तों में निगला भय था लगभग प्रस्तरीभूत जिसने उसके सारे कहे को नागरिक बनाया था जीवन भर उसके विराट और महान लोकतंत्र की सेवा में (रचनाकाल : 1967)
Category: Pankaj Singh
शरद के बादल / पंकज सिंह
फिर सताने आ गए हैं शरद के बादल धूप हल्की-सी बनी है स्वप्न क्यों भला ये आ गए हैं यों सताने शरद के बादल धैर्य धरती का परखने और सूखी हड्डियों में कंप भरने हवाओं की तेज़ छुरियाँ लपलपाते आ गए हैं शरद के बादल (रचनाकाल : 1966)