मुक्ति / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

तोड़ो, तोड़ो, तोड़ो कारा पत्थर, की निकलो फिर, गंगा-जल-धारा! गृह-गृह की पार्वती! पुनः सत्य-सुन्दर-शिव को सँवारती उर-उर की बनो आरती!– भ्रान्तों की निश्चल ध्रुवतारा!– तोड़ो, तोड़ो, तोड़ो कारा!

तुलसीदास / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला” / भाग १

[1] भारत के नभ के प्रभापूर्य शीतलाच्छाय सांस्कृतिक सूर्य अस्तमित आज रे-तमस्तूर्य दिङ्मण्डल; उर के आसन पर शिरस्त्राण शासन करते हैं मुसलमान; है ऊर्मिल जल, निश्चलत्प्राण पर शतदल। [2] शत-शत शब्दों का सांध्य काल यह आकुंचित भ्रू कुटिल-भाल छाया अंबर पर जलद-जाल ज्यों दुस्तर; आया पहले पंजाब प्रान्त, कोशल-बिहार तदनन्त क्रांत, क्रमशः प्रदेश सब हुए… Continue reading तुलसीदास / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला” / भाग १

प्याला / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

(गीत) मृत्यु-निर्वाण प्राण-नश्वर कौन देता प्याला भर भर? मृत्यु की बाधाएँ, बहु द्वन्द पार कर कर जाते स्वच्छन्द तरंगों में भर अगणित रंग, जंग जीते, मर हुए अमर। गीत अनगिनित, नित्य नव छन्द विविध श्रॄंखल, शत मंगल-बन्द, विपुल नव-रस-पुलकित आनन्द मन्द मृदु झरता है झर झर। नाचते ग्रह, तारा-मण्डल, पलक में उठ गिरते प्रतिपल, धरा… Continue reading प्याला / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

हिन्दी के सुमनों के प्रति पत्र / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

मैं जीर्ण-साज बहु छिद्र आज, तुम सुदल सुरंग सुवास सुमन, मैं हूँ केवल पतदल–आसन, तुम सहज बिराजे महाराज। ईर्ष्या कुछ नहीं मुझे, यद्यपि मैं ही वसन्त का अग्रदूत, ब्राह्मण-समाज में ज्यों अछूत मैं रहा आज यदि पार्श्वच्छबि। तुम मध्य भाग के, महाभाग!– तरु के उर के गौरव प्रशस्त मैं पढ़ा जा चुका पत्र, न्यस्त, तुम… Continue reading हिन्दी के सुमनों के प्रति पत्र / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

बादल-राग-6 / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

तिरती है समीर-सागर पर अस्थिर सुख पर दुःख की छाया- जग के दग्ध हृदय पर निर्दय विप्लव की प्लावित माया- यह तेरी रण-तरी भरी आकांक्षाओं से, घन, भेरी-गर्जन से सजग सुप्त अंकुर उर में पृथ्वी के, आशाओं से नवजीवन की, ऊँचा कर सिर, ताक रहे है, ऐ विप्लव के बादल! फिर-फिर! बार-बार गर्जन वर्षण है… Continue reading बादल-राग-6 / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

ज़ुही की कली / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

विजन-वन-वल्लरी पर सोती थी सुहाग-भरी–स्नेह-स्वप्न-मग्न– अमल- कोमल -तनु तरुणी–जुही की कली, दृग बन्द किये, शिथिल–पत्रांक में, वासन्ती निशा थी; विरह-विधुर-प्रिया-संग छोड़ किसी दूर देश में था पवन जिसे कहते हैं मलयानिल । आयी याद बिछुड़न से मिलन की वह मधुर बात, आयी याद चाँदनी की धुली हुई आधी रात, आयी याद कान्ता की कमनीय गात,… Continue reading ज़ुही की कली / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

वन-बेला / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

वर्ष का प्रथम पृथ्वी के उठे उरोज मंजु पर्वत निरुपम किसलयों बँधे, पिक भ्रमर-गुंज भर मुखर प्राण रच रहे सधे प्रणय के गान, सुन कर सहसा प्रखर से प्रखरतर हुआ तपन-यौवन सहसा ऊर्जित,भास्वर पुलकित शत शत व्याकुल कर भर चूमता रसा को बार बार चुम्बित दिनकर क्षोभ से, लोभ से ममता से, उत्कंठा से, प्रणय… Continue reading वन-बेला / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”