प्रियतम / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

एक दिन विष्‍णुजी के पास गए नारद जी, पूछा, “मृत्‍युलोक में कौन है पुण्‍यश्‍यलोक भक्‍त तुम्‍हारा प्रधान?” विष्‍णु जी ने कहा, “एक सज्‍जन किसान है प्राणों से भी प्रियतम।” “उसकी परीक्षा लूँगा”, हँसे विष्‍णु सुनकर यह, कहा कि, “ले सकते हो।” नारद जी चल दिए पहुँचे भक्‍त के यहॉं देखा, हल जोतकर आया वह दोपहर… Continue reading प्रियतम / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

भेद कुल खुल जाए / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

भेद कुल खुल जाए वह सूरत हमारे दिल में है । देश को मिल जाए जो पूँजी तुम्हारी मिल में है ।। हार होंगे हृदय के खुलकर तभी गाने नये, हाथ में आ जायेगा, वह राज जो महफिल में है । तरस है ये देर से आँखे गड़ी श्रृंगार में, और दिखलाई पड़ेगी जो गुराई… Continue reading भेद कुल खुल जाए / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

मद भरे ये नलिन / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

मद – भरे ये नलिन – नयनमलीन हैं; अल्प – जल में या विकल लघु मीन हैं? या प्रतीक्षा में किसी की शर्वरी; बीत जाने पर हुये ये दीन हई? या पथिक से लोल – लोचन! कह रहे- “हम तपस्वी हैं, सभी दुख सह रहे। गिन रहे दिन ग्रीष्म – वर्षा – शीत के; काल… Continue reading मद भरे ये नलिन / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

पथ आंगन पर रखकर आई / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

पल्लव – पल्लव पर हरियाली फूटी, लहरी डाली-डाली, बोली कोयल, कलि की प्याली मधु भरकर तरु पर उफनाई। झोंके पुरवाई के लगते, बादल के दल नभ पर भगते, कितने मन सो-सोकर जगते, नयनों में भावुकता छाई। लहरें सरसी पर उठ-उठकर गिरती हैं सुन्दर से सुन्दर, हिलते हैं सुख से इन्दीवर, घाटों पर बढ आई काई।… Continue reading पथ आंगन पर रखकर आई / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

शरण में जन, जननि / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

अनगिनित आ गये शरण में जन, जननि- सुरभि-सुमनावली खुली, मधुऋतु अवनि! स्नेह से पंक – उर हुए पंकज मधुर, ऊर्ध्व – दृग गगन में देखते मुक्ति-मणि! बीत रे गयी निशि, देश लख हँसी दिशि, अखिल के कण्ठ की उठी आनन्द-ध्वनि।

गहन है यह अंधकारा / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

गहन है यह अंधकारा; स्वार्थ के अवगुंठनों से हुआ है लुंठन हमारा। खड़ी है दीवार जड़ की घेरकर, बोलते है लोग ज्यों मुँह फेरकर इस गगन में नहीं दिनकर; नही शशधर, नही तारा। कल्पना का ही अपार समुद्र यह, गरजता है घेरकर तनु, रुद्र यह, कुछ नही आता समझ में कहाँ है श्यामल किनारा। प्रिय… Continue reading गहन है यह अंधकारा / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

भर देते हो / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

भर देते हो बार-बार, प्रिय, करुणा की किरणों से क्षुब्ध हृदय को पुलकित कर देते हो । मेरे अन्तर में आते हो, देव, निरन्तर, कर जाते हो व्यथा-भार लघु बार-बार कर-कंज बढ़ाकर; अंधकार में मेरा रोदन सिक्त धरा के अंचल को करता है क्षण-क्षण- कुसुम-कपोलों पर वे लोल शिशिर-कण तुम किरणों से अश्रु पोंछ लेते… Continue reading भर देते हो / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

प्राप्ति / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

तुम्हें खोजता था मैं, पा नहीं सका, हवा बन बहीं तुम, जब मैं थका, रुका । मुझे भर लिया तुमने गोद में, कितने चुम्बन दिये, मेरे मानव-मनोविनोद में नैसर्गिकता लिये; सूखे श्रम-सीकर वे छबि के निर्झर झरे नयनों से, शक्त शिरा‌एँ हु‌ईं रक्त-वाह ले, मिलीं – तुम मिलीं, अन्तर कह उठा जब थका, रुका ।

तुम हमारे हो / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

नहीं मालूम क्यों यहाँ आया ठोकरें खाते हु‌ए दिन बीते। उठा तो पर न सँभलने पाया गिरा व रह गया आँसू पीते। ताब बेताब हु‌ई हठ भी हटी नाम अभिमान का भी छोड़ दिया। देखा तो थी माया की डोर कटी सुना वह कहते हैं, हाँ खूब किया। पर अहो पास छोड़ आते ही वह… Continue reading तुम हमारे हो / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

भिक्षुक / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

वह आता– दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता। पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक, चल रहा लकुटिया टेक, मुट्ठी भर दाने को– भूख मिटाने को मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता– दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता। साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाये, बायें से वे मलते… Continue reading भिक्षुक / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”