तुलसीदास / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला” / भाग ३

<< पिछला भाग [51] उस प्रियावरण प्रकाश में बँध, सोचता, "सहज पड़ते पग सध; शोभा को लिये ऊर्ध्व औ अध घर बाहर यह विश्व, सूर्य, तारक-मण्डल, दिन, पक्ष, मास, ऋतु, वर्ष चपल; बँध गति-प्रकाश में बुद्ध सकल पूर्वापर।" [52] "बन्ध के बिना कह, कहाँ प्रगति ? गति-हीन जीव को कहाँ सुरति ? रति-रहित कहाँ सुख केवल क्षति-केवल क्षति; यह क्रम विनाश इससे चलकर आता सत्वर मन निम्न उतर; छूटता अन्त में चेतन स्तर, जाती मति।" [53] "देखो प्रसून को वह उन्मुख ! रँग-रेणु-गन्ध भर व्याकुल-सुख, देखता ज्योतिमुखः आया दुख पीड़ा सह। चटका कलि का अवरोध सदल, वह शोधशक्ति, जो गन्धोच्छल, खुल पड़ती पल-प्रकाश को, चल परिचय वह।" [54] "जिस तरह गन्ध से बँधा फूल, फैलता दूर तक भी समूल; अप्रतिम प्रिया से, त्यों दुकूल-प्रतिभा में मैं बँधा एक शुचि आलिंगन, आकृति में निराकार, चुम्बन; युक्त भी मुक्त यों आजीवन, लघिमा में।" [55] सोचता कौन प्रतिहत चेतन- वे नहीं प्रिया के नयन, नयन; वह केवल वहाँ मीन-केतन, युवती में; अपने वश में कर पुरुष देश है उड़ा रहा ध्वज-मुक्तकेश; तरुणी-तनु आलम्बन-विशेष, पृथ्वी में? [56] वह ऐसी जो अनुकूल युक्ती, जीव के भाव की नहीं मुक्ति; वह एक भुक्ति, ज्यों मिली शुक्ति से मुक्ता; जो ज्ञानदीप्ति, वह दूर अजर, विश्व के प्राण के भी ऊपर; माया वह , जो जीव से सुघर संयुक्ता। [57] मृत्तिका एक कर सार ग्रहण खुलते रहते बहुवर्ण, सुमन, त्यों रत्नावली-हार में बँध मन चमका, पाकर नयनों की ज्योति प्रखर, ज्यों रविकर से श्यामल जलधर, बह वर्णों के भावों से भरकर दमका। [58] वह रत्नावली नाम-शोभन पति-रति में प्रतन, अतः लोभन अपरिचित-पुण्य अक्षय क्षोभन धन कोई, प्रियकरालम्ब को सत्य-यष्टि, प्रतिभा में श्रद्धा की समष्टि; मायामन में प्रिय-शयन व्यष्टि भर सोयी:- [59] लखती ऊषारुण, मौन, राग, सोते पति से वह रही जाग; प्रेम के फाग में आग त्याग की तरुणा; प्रिय के जड़ युग कूलों को भर बहती ज्यों स्वर्गंगा सस्वर; नश्वरता पर अलोक-सुघर दृक्-करुणा। [60] धीरे-धीर वह हुआ पार तारा-द्युति से बँध अन्धकार; एक दिन विदा को बन्धु द्वार पर आया; लख रत्नावली खुली सहास; अवरोध-रहित बढ़ गयी पास; बोला भाई, हँसती उदास तू छाया- [61] "हो गयी रतन, कितनी दुर्बल, चिन्ता में बहन, गयी तू गल माँ, बापूजी, भाभियाँ सकल पड़ोस की हैं विकल देखने को सत्वर सहेलियाँ सब, ताने देकर कहती हैं, बेचा वर के कर, आ न सकी" [62] "तुझसे पीछे भेजी जाकर आयीं वे कई बार नैहर; पर तुझे भेजते क्यों श्रीवरजी डरते ? हम कई बार आ-आकर घर लौटे पाकर झूठे उत्तर; क्यों बहन, नहीं तू सम, उन पर बल करते ? [63] "आँसुओं भरी माँ दुख के स्वर बोलीं, रतन से कहो जाकर, क्या नहीं मोह कुछ माता पर अब तुमको ? जामाताजी वाली ममता माँ से तो पाती उत्तमता।" बोले बापू, योगी रमता मैं अब तो- [64] "कुछ ही दिन को हूँ कल-द्रुम; छू लूँ पद फिर कह देना तुम।" बोली भाभी, लाना कुंकुम-शोभा को; फिर किया अनावश्यक प्रलाप, जिसमें जैसी स्नेह की छाप ! पर अकथनीय करुणा-विलाप जो माँ को। [65] "हम बिना तुम्हारे आये घर, गाँव की दृष्टि से गये उतर; क्यों बहन, ब्याह हो जाने पर, घर पहला केवल कहने को है नैहर?- दे सकता नहीं स्नेह-आदर?- पूजे पद, हम इसलिए अपर?" उर दहला [66] उस प्रतिमा का, आया तब खुल मर्यादागर्भित धर्म विपुल, धुल अश्रु-धार से हुई अतुल छवि पावन, वह घेर-घेर निस्सीम गगन उमड़े भावों के घन पर घन, फैला, ढक सघन स्नेह-उपवन, वह सावन। [67] बोली वह, मृदु-गम्भीर-घोष, "मैं साथ तुम्हारे, करो तोष।" जिस पृथ्वी से निकली सदोष वह सीता, अंक में उसी के आज लीन- निज मर्यादा पर समासीन; दे गयी सुहृद् को स्नेह-क्षीण गत गीता। [68] बोला भाई, तो "चलो अभी, अन्यथा, न होंगे सफल कभी हम, उनके आ जाने पर, जी यह कहता। जब लौटें वह, हम करें पार राजापुर के ये सभी मार्ग, द्वार।" चल दी प्रतिमा। घर अन्धकार अब बहता। [69] लेते सौदा जब खड़े हाट, तुलसी के मन आया उचाट; सोचा, अबके किस घाट उतारें इनको; जब देखो, तब द्वार पर खड़े उधार लाये हम, चले बड़े ! दे दिया दान तो अड़े पड़े अब किनक ? [70] सामग्री ले लौटे जब घर, देखा नीलम-सोपानों पर नभ के चढ़ती आभा सुन्दर पग धर-धर; श्वेत, श्याम, रक्त, पराग-पीत, अपने सुख से ज्यों सुमन भीत; गाती यमुना नृत्यपर, गीत कल-कल स्वर। [71] देखा वह नहीं प्रिया जीवन; नत-नयन भवन, विषण्ण आँगन; आवरण शून्य वे बिना वरण-मधुरा के अपहृत-श्री सुख-स्नेह का सद्य, निःसुरभि, हत, हेमन्त-पद्म ! नैतिक-नीरस, निष्प्रीति, छद्म ज्यों, पाते। [72] यह नहीं आज गृह, छाया-उर, गीति से प्रिया की मुखर, मधुर; गति-नृत्य, तालशिंजित-नूपुर चरणारुण; व्यंजित नयनों का भाव सघन भर रंजित जो करता क्षण-क्षण; कहता कोई मन से, उन्मन, सुर रे, सुन। [73] वह आज हो गयी दूर तान, इसलिए मधुर वह और गान, सुनने को व्याकुल हुए प्राण प्रियतम के; छूटा जग का व्यवहार - ज्ञान, पग उठे उसी मग को अजान, कुल-मान-ध्यान श्लथ स्नेह-दान-सक्षम से। [74] मग में पिक-कुहरिल डाल, हैं हरित विटप सब सुमन - माल, हिलतीं लतिकाएँ ताल-ताल पर सस्मित। पड़ता उन पर ज्योतिः प्रपात, हैं चमक रहे सब कनक-गात, बहती मधु-धीर समीर ज्ञात, आलिंगित। [75] धूसरित बाल-दल, पुण्य-रेणु, लख चरण-वारण-चपल धेनु, आ गयी याद उस मधुर-वेणु-वादन की; वह यमुना-तट, वह वृन्दावन, चपलानन्दित यह सघन गगन; गोपी-जन-यौवन-मोहन-तन वह वन-श्री। अगला भाग >>

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