दसन बसन बोली भरि ए रहे गुलाल हँसनि लसनि त्यों कपूर सरस्यौ करै । साँसन सुगंध सौंधे कोरिक समोय धरे, अंग-अंग रूप-रंग रस बरस्यौ करै ॥ जान प्यारी तो तन ’अनंदघन’ हित नित, अमित सुहाय आग फाग दरस्यौ करै । इतै पै नवेली लाज अरस्यौ करै, जु प्यारौ – मन फगुवा दै, गारी हू कों… Continue reading दसन बसन बोली भरि ए रहे गुलाल / घनानंद
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घनआनँद प्यारे कहा जिय जारत / घनानंद
’घनआनँद’ प्यारे कहा जिय जारत, छैल ह्वै फीकिऐ खौरन सों । करि प्रीति पतंग कौ रंग दिना दस, दीसि परै सब ठौरन सों ॥ ये औसर फागु कौ नीकौ फब्यौ, गिरधारीहिं लै कहूँ टौरन सों । मन चाहत है मिलि खेलन कों, तुम खेलत हौ मिलि औरन सों ॥
कहाँ एतौ पानिप बिचारी पिचकारी धरै / घनानंद
कहाँ एतौ पानिप बिचारी पिचकारी धरै, आँसू नदी नैनन उमँगिऐ रहति है । कहाँ ऐसी राँचनि हरद-केसू-केसर में, जैसी पियराई गात पगिए रहति है ॥ चाँचरि-चौपहि हू तौ औसर ही माचति, पै- चिंता की चहल चित्त लगिऐ रहति है । तपनि बुझे बिन ’आनँदघन’ जान बिन, होरी सी हमारे हिए लगिऐ रहति है ॥
पकरि बस कीने री नँदलाल / घनानंद
(राग केदारौ) पकरि बस कीने री नँदलाल । काजर दियौ खिलार राधिका, मुख सों मसलि गुलाल ॥ चपल चलन कों अति ही अरबर, छूटि न सके प्रेम के जाल । सूधे किये बंक ब्रजमोहन, ’आनँदघन’ रस-ख्याल ॥
राधा नवेली सहेली समाज में / घनानंद
राधा नवेली सहेली समाज में, होरी कौ साज सजें अतो सोहै । मोहन छैल खिलार तहाँ रस-प्यास भरी अँखियान सों जोहै ॥ डीठि मिलें, मुरि पीठि दई, हिय-हेत की बात सकै कहि कोहै । सैनन ही बरस्यौ ’घनआनँद’, भीजनि पै रँग-रीझनि मोहै ॥
बैस नई, अनुराग मई / घनानंद
बैस नई, अनुराग मई, सु भई फिरै फागुन की मतवारी । कौंवरे हाथ रचैं मिंहदी, डफ नीकैं बजाय रहैं हियरा रीन ॥ साँवरे भौंर के भाय भरी, ’घनाआनँद’ सोनि में दीसत न्यारी । कान्ह है पोषत प्रान-पियें, मुख अंबुज च्वै मकरंद सी गारी ॥
खेलत खिलार गुन-आगर उदार राधा / घनानंद
खेलत खिलार गुन-आगर उदार राधा नागरि छबीली फाग-राग सरसात है । भाग भरे भाँवते सों, औसर फव्यौ है आनि, ’आनँद के घन’ की घमंड दरसात है ॥ औचक निसंक अंक चोंप खेल धूँधरि सिहात है । केसू रंग ढोरि गोरे कर स्यामसुंदर कों, गोरी स्याम रंग बीचि बूड़ि-बूड़ि जात है ॥
पिय के अनुराग सुहाग भरी / घनानंद
पिय के अनुराग सुहाग भरी, रति हेरौ न पावत रूप रफै । रिझवारि महा रसरासि खिलार, सुगावत गारि बजाय डफै ॥ अति ही सुकुमार उरोजन भार, भर मधुरी ड्ग, लंक लफै । लपटै ’घनआनँद’ घायल ह्वैं, दग पागल छवै गुजरी गुलफै ॥
अरी निसि नींद न आवै / घनानंद
(राग खंभाती) अरी, ’निसि नींद न आवै, होरी खेलन की चोप । स्याम सलौना, रूप रिझौना, उलह्यौ जोबन कोप ॥ अबहीं ख्याल रच्यौ जु परस्पर, मोहन गिरिधर भूप । अब बरजत मेरी सास-नँनदिया, परी विरह के कूप ॥ मुरली टेर सुनाइ, जगावै सोवत मदन अनूप । पै जिय सोच रही हौं अपने, जाय मिलौं हरि… Continue reading अरी निसि नींद न आवै / घनानंद
सावन आवन हेरि सखी / घनानंद
सावन आवन हेरि सखी, मनभावन आवन चोप विसेखी । छाए कहूँ घनआनँद जान, सम्हारि की ठौर लै भूल न लेखी ॥ बूंदैं लगै, सब अंग दगै, उलटी गति आपने पापन पेखी । पौन सों जागत आगि सुनी ही. पै पानी सों लागत आँखिन देखी ॥