जद बी मांडबा बैठूं छूं कविता / ओम नागर

जद बी मांडबा बैठूं छूं कविता घर का अंधेरे घप्प खूण्यां में थारा ऊजळा अणग्यारा की तोल पाड़ द्ये छै टमटमाती दो आंख्यां का हीरा की चमक। अर म्हूं धोळा कागद पे खूण्यां को अंधेरो ल्ये थारी आंख्यां का हीरां की चमक कै भरोसै मांड द्यूं छूं कविता की भैंत का दो-च्यार कैरक-भैरक आखर। चाहूं… Continue reading जद बी मांडबा बैठूं छूं कविता / ओम नागर

थारो बस्वास / ओम नागर

सतूळ की नांई कतनो बैगो ढसड़ जावै छै थारो बस्वास बाणियां की दुकान पै मिलतौ हो तो कदी को धर देतो थारी छाला पड़ी हथेळी पै दो मुट्ठी बस्वास। बाळू का घर की नांई पग हटता ईं कण-कण को हो जावै छै थारो बस्वास खुद आपणै हाथां आभै पै ऊलाळ द्ये छै तू भींत, देहळ… Continue reading थारो बस्वास / ओम नागर

उडीक / ओम नागर

सूरज उग ढळग्यों/आंथग्यो जाणै कतनी बेर। पोवणी की नांई तपबा लाग’गी धरणी जेठ की भरा-भर दुपैरी मं भर्रणाया बादळां की नांई जी गैल पै रूस’र चली’गी छी तू। ऊं गैल पै मन की रीती छांगळ ल्यां ऊंभौ छूं हाल बी थंई उडीकता।

लैरा-लैरा / ओम नागर

तू धार लेती तो यूं धरकार न्हं होतो जमारो। ठूंठ का माथा पै फूट्याती दो तीत्याँ हथैली की लकीरां सूं नराळी न्हं होती भाग की गाथा। तू बच्यार लेती तो यूँ न्हं ढसड़ती चौमासा मं भींत। घर-आंगणा का मांडण्यां पै न्हं फरतौ पाणी पछीत पै मंण्डी मोरड़ी न्हं निगळती हीरां को हार। ज्यों दो पग… Continue reading लैरा-लैरा / ओम नागर

पतवाणों / ओम नागर

लूंठां सूं लूंठा दरजी कै बी बूता मं कोई न्हं परेम को असल पतवाणो ले लेबो। छणीक होवै छै परेम की काया को दरसाव ज्यें केई नै दीखता सतां बी न्हं दीखै न्हं स्वाहै कोई नै फूटी आंख। आपणा-आपणा फीता सूं लेबो चाह्वै छै सगळां नांळा-नांळा पतवाणा उद्धवों कतनो ई फरल्ये भापड़ो गुरत की फोटळी… Continue reading पतवाणों / ओम नागर

हलौळ / ओम नागर

अस्यां तो कस्यां हो सकै छै कै थनै क्है दी अर म्हनै मान ली सांच कै कोई न्हं अब ई कराड़ सूं ऊं कराड़ कै बीचै ढोबो भरियो पाणी। कै बालपणा मं थरप्यां नद्दी की बांळू का घर-ऊसारां ढसड़ग्यां बखत की बाळ सूं कै नद्दी का पेट मं न्हं र्ही अब कोई झरण। होबा मं… Continue reading हलौळ / ओम नागर

हम कदम ढूँढे कहीं / ओम धीरज

उम्र अब अपना असर करने लगी, अब चलो, कुछ हम कदम ढूढ़ें कहीं साथ दे जो लड़खड़ाते पाँव को, अर्थ दे जो डगमगाते भाव को, हैं कहाँ ऊँचा कहाँ नीचा यहाँ, जो ठिठक कर पढ़ सके हर ठाँव को, जब थकें तो साथ दे कुछ बैठकर, अब चलो, यूं हम सफर ढूढ़ें कहीं जब कभी… Continue reading हम कदम ढूँढे कहीं / ओम धीरज

मैं समय का गीत / ओम धीरज

मै समय का गीत लिखना चाहता, चाहता मैं गीत लिखना आज भी जब समय संवाद से है बच रहा हादसा हर वक्त कोई रच रहा साथ अपनी छोड़ती परछाईयाँ झूठ से भी झूठ कहता सच रहा शत्रु होते इस समय के पृष्ठ पर ’दूध-जल’-सा मीत लिखना चाहता जाल का संजाल बुनती उलझनें, नीड़ सपनों के… Continue reading मैं समय का गीत / ओम धीरज

महिला ऐसे चलती / ओम धीरज

आठ साल के बच्चे के संग महिला ऐसे चलती, जैसे साथ सुरक्षा गाड़ी लप-लप बत्ती जलती बचपन से ही देख रही वह यह विचित्र परिपाटी, पुरूष पूत है लोहा पक्का वह कुम्हार की माटी, ‘बूँद पड़े पर गल जायेगी’ यही सोचकर बढ़ती, इसीलिए वह सदा साथ में छाता कोई रखती बाबुल के आँगन में भी… Continue reading महिला ऐसे चलती / ओम धीरज

तन्त्र की जन्म कुण्डली लिखते / ओम धीरज

थोड़े बहुत बूथ पर लेकिन नहीं सड़क पर दिखते, सन्नाटों के बीच ’तन्त्र’ की जन्म कुण्डली लिखते कलम कहीं पर रूक-रूक जाती मनचाहा जब दीखे, तारकोल से लिपे चेहरे देख ईंकं भी चीखे, सूर्य चन्द्र-से ग्रह गायब है, राहु केतु ही मिलते कथनी-करनी बीच खुदी है कितनी गहरी खाई, जिसे लाँघते काँप रही है अपनी… Continue reading तन्त्र की जन्म कुण्डली लिखते / ओम धीरज