उडीक / ओम नागर

सूरज उग
ढळग्यों/आंथग्यो
जाणै कतनी बेर।

पोवणी की नांई
तपबा लाग’गी धरणी
जेठ की भरा-भर दुपैरी मं
भर्रणाया बादळां की नांई
जी गैल पै
रूस’र चली’गी छी तू।

ऊं गैल पै
मन की रीती छांगळ ल्यां
ऊंभौ छूं हाल बी
थंई उडीकता।

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