गांव, इन दिनों / ओम नागर

गांव इन दिनों दस बीघा लहुसन को जिंदा रखने के लिए हजार फीट गहरे खुदवा रहा है ट्यूवैल निचोड़ लेना चाहता है धरती के पेंदे में बचा रह गया शेष अमृत क्योंकि मनुष्य के बचे रहने के लिए जरूरी हो गया है फसलों का बचे रहना। फसल जिसे बमुश्किल पहुंचाया जा रहा है रसायनिक खाद… Continue reading गांव, इन दिनों / ओम नागर

उपजाये तो क्या उपजायें-तीन / ओम नागर

उपजायें तो क्या उपजायें क्या यूं ही भूख बो कर काटते रहेंगे खुदकुशियों की फसल। या फिर जिस दरांती से काटते आएं है फसल उसी दरांती से काट डाले प्रलोभनों के फंद साहूकार-सफेदपोशों के गले। उपजायें तो क्या उपजायें क्या यूं ही सिसकियां और रूदन बो कर आंसूओं से सिंचतें रहे धरा। या फिर इंकलाब… Continue reading उपजाये तो क्या उपजायें-तीन / ओम नागर

उपजाये तो क्या उपजायें-दो / ओम नागर

उपजायें तो क्या उपजायें चहुं ओर पसर गई है खरपतवार रसायनों ने भस्म कर दी है ऊर्वरता आत्मीयता मुक्त हो रहे है खेत। उपजायें तो क्या उपजायें धरती में गहरें जा पैठा है जल कभी-कभार होती है बिजली के तारों में झनझनाहट धोरें में ही दम तोड़ देता है चुल्लू भर पानी। उपजायें तो क्या… Continue reading उपजाये तो क्या उपजायें-दो / ओम नागर

उपजाये तो क्या उपजायें-एक / ओम नागर

उपजायें तो क्या उपजायें कि खेत से खलिहान होती हुई फसल पहुंच सके घर के बंडों तक मंडियों में पूरे दाम तुलें अनाज के ढेर। उपजायें तो क्या उपजायें कि साहूकार की तिजोरी से निकालकर घरवाली के हाथ थमा सके कड़कड़ाट नोटों की गड्डियां। उपजायें तो क्या उपजायें कि इस बरस बाद कभी न लेना… Continue reading उपजाये तो क्या उपजायें-एक / ओम नागर

गिद्धों की चांदी के दिन / ओम नागर

खास गिद्ध बचे होते पहले जितने या उतने जितना जरूरी ही था गिद्धों का बचा रहना तो यह दिन गिद्धों की चांदी के दिन होते। हाडोड़ में एक जैसे स्वाद से उकतायें गिद्ध अब आसानी से बदल सकते जीभ का स्वाद कोई न कोई शैतान अपने तहखाने में बसा लेता गिद्धों की बस्ती आराम से… Continue reading गिद्धों की चांदी के दिन / ओम नागर

जमीन और जमनालाल-तीन / ओम नागर

तमाम कोशिशों के बावजूद जमनालाल खेत की मेड़ से नहीं हुआ टस से मस सिक्कों की खनक से नहीं खुले उसके जूने जहन के दरीचे। दूर से आ रही बंदूकों की आवाजों में खो गई उसकी आखिरी चीख पैरों को दोनों हाथों से बांधे हुए रह गया दुहरा का दुहरा। एक दिन लाल-नीली बत्तियों का… Continue reading जमीन और जमनालाल-तीन / ओम नागर

जमीन और जमनालाल-दो / ओम नागर

उठो! जमनालाल अब यूं उदास खेत की मेड़ पर बैठे रहने से कोई फायदा नहीं होने वाला। तुम्हें और तुम्हारी आने वाली पीढियों को एक न एक दिन तो समझना ही था जमीन की व्याकरण में अपने और राज के मुहावरों का अंतर। तुम्हारी जमीन क्या छिनी जमनालाल सारे जनता के हिमायती सफेदपोशों ने डाल… Continue reading जमीन और जमनालाल-दो / ओम नागर

जमीन और जमनालाल-एक / ओम नागर

आजकल आठों पहर यूं खेत की मेड़ पर उदास क्यों बैठे रहते हो जमनालाल क्या तुम नहीं जानते जमनालाल कि तुम्हारें इसी खेत की मेड़ को चीरते हुए निकलने को बेताब खडा है राजमार्ग क्या तुम बिसर गये हो जमनालाल ‘‘बेटी बाप की और धरती राज की होती है और राज को भा गये है… Continue reading जमीन और जमनालाल-एक / ओम नागर

भूख का अधिनियम-तीन / ओम नागर

इन दिनों जितनी लंबी फेहरिस्त है भूख को भूखों मारने वालों की उससे कई गुना भूखे पेट फुटपाथ पर बदल रहें होते है करवटें। इसी दरमियां भूख से बेकल एक कुतिया निगल चुकी होती है अपनी ही संतानें घीसू बेच चुका होता है कफन काल कोठरी से निकल आती है बूढ़ी काकी इरोम शर्मिला चानू… Continue reading भूख का अधिनियम-तीन / ओम नागर

भूख का अधिनियम-दो / ओम नागर

एक दिन भूख के भूकंप से थरथरा उठेंगी धरा इस थरथराहट में तुम्हारी कंपकंपाहट का कितना योगदान यह शायद तुम भी नहीं जानते तनें के वजूद को कायम रखने के लिए पत्त्तियों की मौजूदगी की दरकार का रहस्य जंगलों ने भरा है अग्नि का पेट। भूख ने हमेशा से बनायें रखा पेट और पीठ के… Continue reading भूख का अधिनियम-दो / ओम नागर