उजाले के समन्दर में गोते लगाकर मैंने अंधियारे मन को रोते देखा । जगमगाहट से लबरेज़ उस हवेली का हर कोना फटे-हाल भिखारी-सा, सजा-धजा-सा था । पर, मौन, नि:शब्द, डरा-सहमा कातर निगाहों से अपनी बेबसी कहता । थका देने वाला इन्तज़ार हतोत्साहित प्रेमिका के आगोश में उजियारक की प्रतीक्षा में सजा-सँवरा । कैसी है ये… Continue reading उजियारे की डोर (कविता) / ईश्वर दत्त माथुर
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ये मन / ईश्वर दत्त माथुर
हाँ, ये मन प्यासा कुआँ है मन अंधा कुआँ है । मन एक ऐसा जुआ है जो सब कुछ जीत कर भी अतृप्त ही रहता है । जिसकी अभिलाषाओं का पार नहीं । ये न मेरी बेबसी देखता है न मेरी मुफ़लिसी । एक जिद्दी औरत की तरह इसकी माँग मुझे बिकने को मज़बूर करती… Continue reading ये मन / ईश्वर दत्त माथुर
यह कैसी शाम है / ईश्वर दत्त माथुर
यह कैसी शाम है जो ठहर-सी गई है यह कैसी शाम है जो देख रही है मायूस नज़रों से । आज क्या हो गया है इन्हें मेरे मन की तरह हवाओं को, सुगन्धों को और दिशाओं को पक्षघात-सा क्यों हो गया है । वातावरण में थिरकन क्यों नहीं मुझे बिना साँसों की शाम से डर… Continue reading यह कैसी शाम है / ईश्वर दत्त माथुर
मृगतृष्णा / ईश्वर दत्त माथुर
एक मोटा चूहा मेरी ज़िन्द़गी को बार-बार कुतर रहा है अपने पैने दाँतों से । उसने मेरी ज़िन्दगी की डायरी को कुतर-कुतर के अपनी भटकती ज़िन्दगी का बदला लेना चाहा । उसकी मांग है कि आदमी की तरह उसके जीवन में भी सुरक्षा हो । वो मेरा जीवन सुरक्षित समझ रहा है शायद ये उसकी… Continue reading मृगतृष्णा / ईश्वर दत्त माथुर
क्या लिखूँ ? / ईश्वर दत्त माथुर
भाव बहुत हैं, बेभाव है, पर उनका क्या करूँ तुम मुझे कहते हो लिखो, पर मैं लिखूँ किस पर समाज के खोखलेपन पर लोगों के अमानुषिक व्यवहार पर या अपने छिछोरेपन पर लिखने को कलम उठाता हूँ तो सामने नज़र आती है भूख । जो मगरमच्छ–सा मुँह उठाए सब कुछ निगल लेना चाहती है क्या… Continue reading क्या लिखूँ ? / ईश्वर दत्त माथुर
मर्यादा का मुखौटा / ईश्वर दत्त माथुर
ये क्या है, जो मानता नहीं समझता नहीं समझना चाहता नहीं कुछ कहता नहीं कुछ कहना चाहता नहीं। तुम इसे गफ़लत का नाम दो मैं इसे मतलब का । तुम्हारा समर्पण, निष्ठा कहीं मेरे स्वार्थ के शिकार तो नहीं तुम्हारी अटूट श्रद्धा ने मुझे न जाने क्या समझा है लेकिन मैं अन्दर तक जब भी… Continue reading मर्यादा का मुखौटा / ईश्वर दत्त माथुर
ज़हर के घूँट भी हँस हँस के पिए जाते हैं / इक़बाल अज़ीम
ज़हर के घूँट भी हँस हँस के पिए जाते हैं हम बहर-हाल सलीक़े से जिए जाते हैं एक दिन हम भी बहुत याद किए जाएँगे चंद अफ़साने ज़माने को दिए जाते हैं हम को दुनिया से मोहब्बत भी बहुत है लेकिन लाख इल्ज़ाम भी दुनिया को दिए जाते हैं बज़्म-ए-अग़्यार सही अज़-रह-ए-तनक़ीद सही शुक्र है… Continue reading ज़हर के घूँट भी हँस हँस के पिए जाते हैं / इक़बाल अज़ीम
हम बहुत दूर निकल आए हैं चलते चलते / इक़बाल अज़ीम
हम बहुत दूर निकल आए हैं चलते चलते अब ठहर जाएँ कहीं शाम के ढलते ढलते अब ग़म-ए-ज़ीस्त से घबरा के कहाँ जाएँगे उम्र गुज़री है इसी आग में जलते जलते रात के बाद सहर होगी मगर किस के लिए हम ही शायद न रहें रात के ढलते ढलते रौशनी कम थी मगर इतना अँधेरा… Continue reading हम बहुत दूर निकल आए हैं चलते चलते / इक़बाल अज़ीम
बिल-एहतिमाम ज़ुल्म की तजदीद की गई / इक़बाल अज़ीम
बिल-एहतिमाम ज़ुल्म की तजदीद की गई और हम को सब्र ओ ज़ब्त की ताकीद की गई अव्वल तो बोलने की इजाज़त न थी हमें और हम ने कुछ कहा भी तो तरदीद की गई अंजाम-कार बात शिकायात पर रुकी पुर्सिश अगरचे अज़-रह-ए-तम्हीद की गई तज्दीद-ए-इल्तिफ़ात की तज्वीज़ रद हुई तर्क-ए-तअल्लुक़ात की ताईद की गई जीने… Continue reading बिल-एहतिमाम ज़ुल्म की तजदीद की गई / इक़बाल अज़ीम
अपना घर छोड़ के हम लोग वहाँ तक पहुँचे / इक़बाल अज़ीम
अपना घर छोड़ के हम लोग वहाँ तक पहुँचे सुब्ह-ए-फ़र्दा की किरन भी न जहाँ तक पहुँचे मैं ने आँखों में छुपा रक्खे हैं कुछ और चराग़ रौशनी सुब्ह की शायद न यहाँ तक पहुँचे बे-कहे बात समझ लो तो मुनासिब होगा इस से पहले के यही बात ज़बाँ तक पहुँचे तुम ने हम जैसे… Continue reading अपना घर छोड़ के हम लोग वहाँ तक पहुँचे / इक़बाल अज़ीम