उजियारे की डोर (कविता) / ईश्‍वर दत्‍त माथुर

उजाले के समन्‍दर में
गोते लगाकर मैंने
अंधियारे मन को
रोते देखा ।

जगमगाहट से लबरेज़ उस हवेली
का हर कोना
फटे-हाल भिखारी-सा, सजा-धजा-सा था ।
पर, मौन, नि:शब्‍द, डरा-सहमा
कातर निगाहों से अपनी
बेबसी कहता ।

थका देने वाला इन्‍तज़ार
हतोत्‍साहित प्रेमिका के आगोश में
उजियारक की प्रतीक्षा में
सजा-सँवरा ।

कैसी है ये ख़ुशी, किसके लिए
कौन थामेगा, इस उजियारे की डोर
जिसका उजाले में
कोई ओर न छोर ।

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