अपना घर छोड़ के हम लोग वहाँ तक पहुँचे / इक़बाल अज़ीम

अपना घर छोड़ के हम लोग वहाँ तक पहुँचे
सुब्ह-ए-फ़र्दा की किरन भी न जहाँ तक पहुँचे

मैं ने आँखों में छुपा रक्खे हैं कुछ और चराग़
रौशनी सुब्ह की शायद न यहाँ तक पहुँचे

बे-कहे बात समझ लो तो मुनासिब होगा
इस से पहले के यही बात ज़बाँ तक पहुँचे

तुम ने हम जैसे मुसाफ़िर भी न देखे होंगे
जो बहारों से चले और ख़िज़ाँ तक पहुँचे

आज पिंदार-ए-तमन्ना का फ़ुसूँ टूट गया
चंद कम-ज़र्फ़ गिले नोक-ए-ज़बाँ तक पहुँचे

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