रेत के समन्‍दर में सैलाब / ईश्‍वर दत्‍त माथुर

रेत के समन्‍दर में सैलाब आया है न जाने आज ये कैसा ख़्वाब आया है दूर तक साँय-साँय-सी बजती थी शहनाई जहाँ वहीं लहरों ने मल्‍हार आज गाया है । अजनबी खुद परछाई से भी डरता था जहॉं वहीं आइना खुद-ब-खुद उग आया है । अनगढ़ा झोंपड़ा मेरे सपनों का महल होता था मेरे बच्‍चों… Continue reading रेत के समन्‍दर में सैलाब / ईश्‍वर दत्‍त माथुर

जीने का अरमान / ईश्‍वर दत्‍त माथुर

दु:ख में मुझको जीने का अरमान था सुख आया जीवन में ऐसे लेकिन मैं कंगाल था । लक्ष्‍य नहीं था, दिशा नहीं थी लेकिन बढ़ते ही जाना था नहीं सूझता था मुझको कुछ अपनी ही धुन में गाता था । पंख लगाकर समय उड़ गया लेकिन मैं ग़मख़्वार था । सुख की बदली ऐसी आई… Continue reading जीने का अरमान / ईश्‍वर दत्‍त माथुर

अनाम रिश्‍तों का दर्द / ईश्‍वर दत्‍त माथुर

अनाम रिश्‍तों में कोई दर्द कैसे सहता है, खून के बाद नसों में पानी जैसा बहता है । जरा सी ठेस से दिल में दरार आ जाती है, बादे सब भूल के वो अजनबी-सा रहता है । खुलूस-ए दिल में मोहब्‍बत का असर है उसमें, फिर क्‍यों वो अनमना और बेरूखा-सा रहता है । जरा… Continue reading अनाम रिश्‍तों का दर्द / ईश्‍वर दत्‍त माथुर

पंछी की पीड़ा / ईश्‍वर दत्‍त माथुर

पंछी उड़ता डोले है आकाश में डोल- डोल थक जाए ये तन जरत दिया मन आस में पंछी उड़ता डोले है आकाश में । उषा की वेला में पंछी अपने पंख पसार उड़ा गगन चूम लूँ, सूरज मेरा, मन में था विश्‍वास बड़ा सांझ हुई तब लौट चला वो पिया मिलन की आस में ।… Continue reading पंछी की पीड़ा / ईश्‍वर दत्‍त माथुर

समन्‍दर का किनारा / ईश्‍वर दत्‍त माथुर

उफनती लहर ने पूछा समन्‍दर के किनारे से निस्‍तेज से क्‍यूँ हो शान्‍त मन में क्‍या है तुम्‍हारे । समेटे हूँ अथाह सागर तीखा, पर गरजता है । छल, दम्‍भ इसका कोई न जाना मैं शान्‍त, नीरव और निस्‍तेज-सा बेहारल, करता इसकी रखवाली। कहीं विध्‍वंस ना कर दे, चाल इसकी मतवाली । गरजता ज़ोर से… Continue reading समन्‍दर का किनारा / ईश्‍वर दत्‍त माथुर

उजियारे की डोर (कविता) / ईश्‍वर दत्‍त माथुर

उजाले के समन्‍दर में गोते लगाकर मैंने अंधियारे मन को रोते देखा । जगमगाहट से लबरेज़ उस हवेली का हर कोना फटे-हाल भिखारी-सा, सजा-धजा-सा था । पर, मौन, नि:शब्‍द, डरा-सहमा कातर निगाहों से अपनी बेबसी कहता । थका देने वाला इन्‍तज़ार हतोत्‍साहित प्रेमिका के आगोश में उजियारक की प्रतीक्षा में सजा-सँवरा । कैसी है ये… Continue reading उजियारे की डोर (कविता) / ईश्‍वर दत्‍त माथुर

ये मन / ईश्‍वर दत्‍त माथुर

हाँ, ये मन प्‍यासा कुआँ है मन अंधा कुआँ है । मन एक ऐसा जुआ है जो सब कुछ जीत कर भी अतृप्‍त ही रहता है । जिसकी अभिलाषाओं का पार नहीं । ये न मेरी बेबसी देखता है न मेरी मुफ़लिसी । एक जिद्दी औरत की तरह इसकी माँग मुझे बिकने को मज़बूर करती… Continue reading ये मन / ईश्‍वर दत्‍त माथुर

यह कैसी शाम है / ईश्‍वर दत्‍त माथुर

यह कैसी शाम है जो ठहर-सी गई है यह कैसी शाम है जो देख रही है मायूस नज़रों से । आज क्‍या हो गया है इन्‍हें मेरे मन की तरह हवाओं को, सुगन्‍धों को और दिशाओं को पक्षघात-सा क्‍यों हो गया है । वातावरण में थिरकन क्‍यों नहीं मुझे बिना साँसों की शाम से डर… Continue reading यह कैसी शाम है / ईश्‍वर दत्‍त माथुर

मृगतृष्‍णा / ईश्‍वर दत्‍त माथुर

एक मोटा चूहा मेरी ज़िन्‍द़गी को बार-बार कुतर रहा है अपने पैने दाँतों से । उसने मेरी ज़िन्‍दगी की डायरी को कुतर-कुतर के अपनी भटकती ज़िन्‍दगी का बदला लेना चाहा । उसकी मांग है कि आदमी की तरह उसके जीवन में भी सुरक्षा हो । वो मेरा जीवन सुरक्षित समझ रहा है शायद ये उसकी… Continue reading मृगतृष्‍णा / ईश्‍वर दत्‍त माथुर

क्‍या लिखूँ ? / ईश्‍वर दत्‍त माथुर

भाव बहुत हैं, बेभाव है, पर उनका क्‍या करूँ तुम मुझे कहते हो लिखो, पर मैं लिखूँ किस पर समाज के खोखलेपन पर लोगों के अमानुषिक व्‍यवहार पर या अपने छिछोरेपन पर लिखने को कलम उठाता हूँ तो सामने नज़र आती है भूख । जो मगरमच्‍छ–सा मुँह उठाए सब कुछ निगल लेना चाहती है क्‍या… Continue reading क्‍या लिखूँ ? / ईश्‍वर दत्‍त माथुर