इक्कीसवीं सदी की सुबह / उत्पल बैनर्जी

कालचक्र में फँसी पृथ्वी तब भी रहेगी वैसी की वैसी अपने ध्रुवों और अक्षांशों पर वैसी ही अवसन्न और आक्रान्त! धूसर गलियाँ अहिंसा सिखाते हत्यारे असीम कमीनेपन के साथ मुस्कराते निर्लज्ज भद्रजन, असमय की धूप और अंधड़… कुछ भी नहीं बदलेगा! किसी चमत्कार की तरह नहीं आएंगे देवदूत अकस्मात हम नहीं पहुँच सकेंगे किसी स्वर्णिम… Continue reading इक्कीसवीं सदी की सुबह / उत्पल बैनर्जी

बहुत दिनों तक / उत्पल बैनर्जी

जब निराशा का अंधेरा घिरने लगेगा और उग आएंगे दुखों के अभेद्य बीहड़ ऐसे में जब तुम्हारी करुणा का बादल ढँक लेना चाहेगा मुझे शीतल आँचल की तरह मैं लौटा दूंगा उसे कि मुझे सह लेने दो जो तुमने अब तक सहा है! उम्र की दहलीज़ पर जब थमने लगेगा साँसों का ज्वार जीवन के… Continue reading बहुत दिनों तक / उत्पल बैनर्जी

प्रतीक्षा / उत्पल बैनर्जी

मैं भेजूंगा उसकी ओर प्रार्थना की तरह शुभेच्छाएँ, किसी प्राचीन स्मृति की प्राचीर से पुकारूंगा उसे जिसकी हमें अब कोई ख़बर नहीं, अपनी अखण्ड पीड़ा से चुनकर कुछ शब्द और कविताएँ बहा दूंगा वर्षा की भीगती हवाओं में जिसे अजाने देश की किसी अलक्ष्य खिड़की पर बैठा कोई प्रेमी पक्षी गाएगा, मैं सहेज कर रखूंगा… Continue reading प्रतीक्षा / उत्पल बैनर्जी

अन्धेरी दुनिया / उज्जवला ज्योति तिग्गा

हमारे हिस्से का उजाला न जाने कहाँ खो गया कि आज भी मयस्सर नहीं हमें कतरा भर भी आसमाँ ज़िन्दगी जूठन और उतरन के सिवा कुछ भी नहीं चेहरे पर अपमान और लाँछन की चादर लपेट भटकते हैं रोज़ ही ज़िन्दगी की गलियों में आवारा कुत्तों और भिखारियों की तरह … औरो के दुख है… Continue reading अन्धेरी दुनिया / उज्जवला ज्योति तिग्गा

अन्धेरों का गीत / उज्जवला ज्योति तिग्गा

मूक बाँसुरी गाती है मन ही मन अन्धेरों के गीत मूक बाँसुरी में बसता है सोई हुई उम्मीदों और खोए हुए सपनों का भुतहा संगीत देखती है मूक बाँसुरी भी सपने, घने अन्धेरे जंगल में रोशनी की झमझम बारिश का मूक बाँसुरी में क़ैद है अन्धेरे का अनसुना संगीत

टिड्डियों सा दल बाँधे लौटेंगे वे / उज्जवला ज्योति तिग्गा

ज़िन्दगी भर रेंग घिसट कर कीड़े-मकोड़ों-सा जीवन जिया हर किसी के पैरों के तले रौंदे जाने के बावजूद हर बार तेज़ आँधियों में सिर उठाने की हिमाकत की और समय के तेज़ प्रवाह के ख़िलाफ़ स्थिर खड़े रहने की मूर्खता (जुर्रत) की और जीवन की टेढ़ी मेढ़ी उबड़ खाबड़ पगडंडियो पर रखते रहे / राह… Continue reading टिड्डियों सा दल बाँधे लौटेंगे वे / उज्जवला ज्योति तिग्गा

जंगल चीता बन लौटेगा / उज्जवला ज्योति तिग्गा

जंगल आख़िर कब तक ख़ामोश रहेगा कब तक अपनी पीड़ा के आग में झुलसते हुए भी अपने बेबस आँसुओं से हरियाली का स्वप्न सींचेगा और अपने अंतस में बसे हुए नन्हे से स्वर्ग में मगन रहेगा …. पर जंगल के आँसू इस बार व्यर्थ न बहेंगे जंगल का दर्द अब आग का दरिया बन फ़ूटेगा… Continue reading जंगल चीता बन लौटेगा / उज्जवला ज्योति तिग्गा

शिकारी दल अब आते हैं / उज्जवला ज्योति तिग्गा

शिकारी दल अब आते हैं खरगोशों का रूप धरे जंगलो में / और वहाँ रहने वाले शेर भालू और हाथी को अपनी सभाओं में बुलवाकर उन्हें पटाकर पट्टी पढ़ाकर समझाया / फ़ुसलाया कि / आख़िर औरों की तरह तरक्की उनका भी तो जन्मसिद्ध अधिकार है / कि क्या वे किसी से कम हैं / कि… Continue reading शिकारी दल अब आते हैं / उज्जवला ज्योति तिग्गा

उजाले से / उज्जवला ज्योति तिग्गा

अक्सर सुना है लोगो को शिकायत करते उजाले से भला क्या मिला हमें आज तक उजाले ने तो आकर हमारे सामने कर दी कितनी ही परेशानियाँ खड़ी भला किसे जरूरत है उजाले की अब जब अन्धेरों से ही काम चल जाता है अब और फिर अब तो आदत-सी हो गई है अन्धेरों की सीख लिया… Continue reading उजाले से / उज्जवला ज्योति तिग्गा

पानी का बुलबुला / उज्जवला ज्योति तिग्गा

मेरे आँसू हैं महज पानी का बुलबुला और मेरा दर्द सिर्फ़ मेरा दिमागी फ़ितूर उनके तमाम कोशिशों के बावजूद मेरे बचे रहने की ज़िद्द के सामने धराशायी हो जाते हैं उनके तमाम नुस्खे और मंसूबे अपने उन्हीं हत्यारों की ख़ुशी के लिए रोज़ हँसती हूँ गाती हूँ मैं जिन्हें सख़्त ऐतराज है मेरे वजूद तक… Continue reading पानी का बुलबुला / उज्जवला ज्योति तिग्गा