कविता से बाहर / उत्पल बैनर्जी

एक दिन अचानक हम चले जाएँगे तुम्हारी इच्छा और घृणा से भी दूर किसी अनजाने देश में और शायद तुम जानना भी न चाहो हमारी विकलता और अनुपस्थिति के बारे में! हो सकता है इस सुन्दर पृथ्वी को छोड़कर हम चले जाएँ दूर… नक्षत्रों के देश में फिर किसी शाम जब आँख उठाकर देखो चमकते… Continue reading कविता से बाहर / उत्पल बैनर्जी

लड़की / उत्पल बैनर्जी

लड़की को बोलने दो लड़की की भाषा में, सुदूर नीलाकाश में खोलने दो उसे मन की खिड़कियाँ, उस पार शिरीष की डाल पर बैठा है भोर का पहला पक्षी पलाश पर उतर आई है प्रेमछुई धूप उसे गुनगुनाने दो कोई प्रेमगीत सजाने दो सपनों के वन्दनवार बुनने दो कविता भाषा के सूर्योदय में मन की… Continue reading लड़की / उत्पल बैनर्जी

आखेट / उत्पल बैनर्जी

अलमारी में बंद किताबें प्रतीक्षा करती हैं पढ़े जाने की सुरों में ढलने की प्रतीक्षा करते हैं गीत प्रतीक्षा करते हैं — सुने जाने की अपने असंख्य क़िस्सों का रोमांच लिए जागते रहते हैं उनके पात्र जिस तरह दुकानों में बच्चों की प्रतीक्षा करते हैं खिलौने किताबें, पढ़ने वालों की प्रतीक्षा करती हैं लेकिन जब… Continue reading आखेट / उत्पल बैनर्जी

लौटना / उत्पल बैनर्जी

अभी आता हूँ — कहकर हम निकल पड़ते हैं घर से हालाँकि अपने लौटने के बारे में किसी को ठीक-ठीक पता नहीं होता लेकिन लौट सकेंगे की उम्मीद लिए हम निकल ही पड़ते हैं, अकसर लौटते हुए अपने और अपनों के लौट आने का होने लगता है विश्वास, जैसे — अभी आती हूँ कहकर गई… Continue reading लौटना / उत्पल बैनर्जी

जिएँगे इस तरह / उत्पल बैनर्जी

हमने ऐसा ही चाहा था कि हम जिएँगे अपनी तरह से और कभी नहीं कहेंगे — मज़बूरी थी, हम रहेंगे गौरैयों की तरह अलमस्त अपने छोटे-से घर को कभी ईंट-पत्थरों का नहीं मानेंगे उसमें हमारे स्पन्दनों का कोलाहल होगा, दुःख-सुख इस तरह आया-जाया करेंगे जैसे पतझर आता है, बारिश आती है कड़ी धूप में दहकेंगे… Continue reading जिएँगे इस तरह / उत्पल बैनर्जी

घर / उत्पल बैनर्जी

मैं अपनी कविता में लिखता हूँ ‘घर’ और मुझे अपना घर याद ही नहीं आता याद नहीं आती उसकी मेहराबें आले और झरोखे क्या यह बे-दरो-दीवार का घर है! बहुत याद करता हूँ तो टिहरी हरसूद याद आते हैं याद आती हैं उनकी विवश आँखें मौत के आतंक से पथराई हिचकोले खाते छोटे-छोटे घर …… Continue reading घर / उत्पल बैनर्जी

प्रार्थना / उत्पल बैनर्जी

हे ईश्वर! हम शुद्ध मन और पवित्र आत्मा से प्रार्थना करते हैं तू हमें हुनर दे कि हम अपने प्रभुओं को प्रसन्न रख सकें और हमें उनकी करुणा का प्रसाद मिलता रहे, भीतर-बाहर हम जाने कितने ही शत्रुओं से घिरे हुए हैं प्रभु के विरोध में बोलने वाले नीचों से हमारे वैभव की रक्षा कर,… Continue reading प्रार्थना / उत्पल बैनर्जी

हममें बहुत कुछ / उत्पल बैनर्जी

हममें बहुत कुछ एक-सा और अलग था … वन्यपथ पर ठिठक कर अचानक तुम कह सकती थीं यह गन्ध वनचम्पा की है और वह दूधमोगरा की, ऐसा कहते तुम्हारी आवाज़ में उतर आती थी वासन्ती आग में लिपटी मौलसिरी की मीठी मादकता, सागर की कोख में पलते शैवाल और गहरे उल्लास में कसमसाते संतरों का… Continue reading हममें बहुत कुछ / उत्पल बैनर्जी

निर्वासन / उत्पल बैनर्जी

अपनी ही आग में झुलसती है कविता अपने ही आँसुओं में डूबते हैं शब्द। जिन दोस्तों ने साथ जीने-मरने की क़समें खाई थीं एक दिन वे ही हो जाते हैं लापता और फिर कभी नहीं लौटते, धीरे-धीरे धूसर और अपाठ्य हो जाती हैं उनकी अनगढ़ कविताएँ और दुःख, उनके चेहरे भी ठीक-ठीक याद नहीं रहते।… Continue reading निर्वासन / उत्पल बैनर्जी

बर्फ़ के लड्डू / उत्पल बैनर्जी

लाल हरे पीले टापुओं की तरह होते थे बर्फ़ के लड्डू बचपन के उदास मौसम में खिलते पलाश की तरह। सुर्ख़ रंगों के इस पार से बहुत रंगीन दिखती थी दुनिया हालाँकि उस पार का यथार्थ बहुत बदरंग हुआ करता था, गर्दन तिरछी कर जब हम लड्डू चूसते तो माँ हमें कान्हा पुकारती तब पैसों… Continue reading बर्फ़ के लड्डू / उत्पल बैनर्जी