पतझड़ में किस चीज़ के बारे में सोचते हैं आप सबसे ज़्यादा क्या आप साइकिल के अगले टायर को लेकर परेशान हैं जिसका बदलना अब नितान्त ज़रूरी हो गया है? या परेशान हैं घुटनों के दर्द से जो प्रायः इसी मौसम में जकड़ लेता है आपको? मैं चाहता हूँ कि आप अपनी व्यस्तता से बस… Continue reading पतझड़-2 / एकांत श्रीवास्तव
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पतझड़-1 / एकांत श्रीवास्तव
हम दोनों धरती के अलग-अलग छोरों पर अलग-अलग अँधेरे में देखते हैं पीले पत्तों का झड़ना झड़ने से पहले उनका पीला पड़ना उससे भी पहले उनका गृहस्थ से वानप्रस्थ के लिए तैयार होना सुनो! तुम्हारे पतझड़ के पत्ते उड़कर आ गए हैं मेरे पतझड़ में क्या मेरे पतझड़ के पत्ते भी तुम्हारे पतझड़ में भटक… Continue reading पतझड़-1 / एकांत श्रीवास्तव
पुराने रास्ते / एकांत श्रीवास्तव
किनारे के पेड़ वही हैं बस थोड़े सयाने हो गए हैं ब्याह करने लायक बच्चों की तरह पहले से ज़्यादा चुप हैं तपस्वी बरगद हवा चलने पर सिर्फ़ उसकी जटाएँ लहराती हैं कभी-कभी खम्हार के पके पत्तों-सी धीरे-धीरे हिल रही है दोपहर घर वही हैं लेकिन कुछ गिर गए हैं कुछ बन गए हैं नए… Continue reading पुराने रास्ते / एकांत श्रीवास्तव
अमरकंटक / एकांत श्रीवास्तव
बरसों से नर्मदा के जल में एकटक देख रहा है अपना चेहरा यह शहर इसके सपने विन्ध्याचल की नींद में टहल रहे हैं और यह स्वयं एक मीठे सपने की तरह बसा है नर्मदा की जल भरी आँखों में बरसों से जुड़े हैं इस शहर के हाथ और काँप रहे हैं होंठ ‘नर्मदे हर’ यह… Continue reading अमरकंटक / एकांत श्रीवास्तव
कविता की ज़रूरत-2 / एकांत श्रीवास्तव
जिस समय जाल पानी में फेंका जा चुका होगा जिस समय बीज खेतों में बोए जा चुके होंगे जिस समय एक नाव नदी की सबसे तेज़ धार को काट रही होगी उसी समय उसी समय पैदा होगी कविता की ज़रूरत जिस समय पकते फलों की सुगंध से बेचैन हो उतरेंगे वृक्षों पर जंगली तोते बाढ़… Continue reading कविता की ज़रूरत-2 / एकांत श्रीवास्तव
कविता की ज़रूरत-1 / एकांत श्रीवास्तव
सबसे पहले सारस के पंखों-सा दूधिया कोरा काग़ज़ दो फिर एक क़लम जिसकी स्याही में घुला हो असँख्य काली रातों का अँधकार थोड़ी-सी आग गोरसी की थोड़ा-सा धुआँ थोड़ा-सा जल आँखों का जो सपनों की जड़ों में भी बचा हो मुझे दो कविता लिखने के लिए हज़ारों झुके सिरों के बीच एक उठा हाथ हज़ारों… Continue reading कविता की ज़रूरत-1 / एकांत श्रीवास्तव
सूरजमुखी का फूल / एकांत श्रीवास्तव
फिर आ गए है फूल सूरजमुखी के भोर के गुलाबी आईने में झाँकते चीन्हते जानी-पहचानी धरती जैसे द्वार पर पहुँचे हुए पाहुन वे आ गये हैं इस बार भी अपने समय पर जब सिर्फ सूचनाएँ आ रही हैं हत्या की बाढ़, अकाल और महामारी में मरने वाले लोगों की देखते-देखते एक बसे बसाए शहर के… Continue reading सूरजमुखी का फूल / एकांत श्रीवास्तव
मैं / एकांत श्रीवास्तव
मैं गेहूँ का पका खेत हूँ चिडियो! मुझे चुग लो मैं वीरान जंगल का झरना हूँ मुसाफिर! मुझमें नहा लो मैं आषाढ़ का पानी हूँ पहाड़ो! मुझे गिरा दो मैं खलिहान का बुझा हुआ दिया हूँ माँ! मुझे जला दो मैं जल में सोया संगीत हूँ पवन! मुझे जगा दो मैं क्रोध का ठंडा पत्थर… Continue reading मैं / एकांत श्रीवास्तव
पुकार / एकांत श्रीवास्तव
बरसों से एक पुकार मेरा पीछा कर रही है एक महीन और मार्मिक पुकार इस महानगर में भी मैं इसे साफ-साफ सुन सकता हूँ। आज जब यह पहली बारिश के बाद धरती की सोंधी सुगंध की तरह हर तरु से उठ रही है मैं एकदम बेचैन और अवश हो गया हूँ इसके सामने क्या यह… Continue reading पुकार / एकांत श्रीवास्तव
ओ पृथ्वी-2 / एकांत श्रीवास्तव
अपनी धुरी के साथ-साथ घूमती हमारी नींद में भी अजस्र सपनों से भरी ओ पृथ्वी! मुझे दे आज यह वचन कि मुझमें तू रहे शताब्दियों तक हवा, धूप और संगीत की तरह मैं रहूँ तेरे झरनों की गुनगुनाहट और उसके जल की मिठास में तेरे पतझड़ का एक पत्ता तेरे वसन्त का एक पलाश और… Continue reading ओ पृथ्वी-2 / एकांत श्रीवास्तव