अमरकंटक / एकांत श्रीवास्तव

बरसों से
नर्मदा के जल में
एकटक देख रहा है अपना चेहरा
यह शहर

इसके सपने
विन्‍ध्‍याचल की नींद में
टहल रहे हैं

और यह स्‍वयं एक मीठे सपने की तरह
बसा है नर्मदा की जल भरी आँखों में

बरसों से जुड़े हैं
इस शहर के हाथ
और काँप रहे हैं होंठ ‘नर्मदे हर’
यह
मन्दिर की चौखट पर बैठा है
बरसों से छोड़कर अपना घर

इसकी घाटियों से आ रही है
करौंदे, नीम
और मकोई के फूलों की गन्‍ध

झरने गीत हैं इस शहर के
जो गूँज रहे हैं
पत्‍थरों के उदास मन में

वसन्‍त में होता है यह शहर
एक बार फिर
वही बरसों पुराना ‘आम्रकूट’

जिसकी पगडंडियों पर
छूटे हैं कालिदास के पाँव के निशान
आज भी हैं
गुलबकावली के फूलों में
कालिदास के हाथों का स्‍पर्श

‘कालिदास…..कालिदास…..’
पुकारते हैं सागौन के पत्‍ते
और ‘मेघदूत’ के
पन्‍नों की तरह फड़फड़ाते हैं

बरसों से यह शहर
कपिल के उठे हुए हाथ के नीचे
भीग रहा है
मीठे दूध की धार में

बरसों से
इसके मंदिरों की गुम्‍बदों पर
बैठें हैं कबूतर
ओ दुष्‍यन्‍त!
यहाँ हैं तुम्‍हारे कबूतर
चुगते चावल के दाने
पीते कुण्‍ड का जल

यह हाथ में
कमण्‍डल लिए खड़ा है
किसी भी वक़्त
जंगल में ग़ुम होने को तैयार

बरसों से कबीर के इंतज़ार में है
एक उदास चबूतरा
कि वे लौट आएँगे किसी भी वक़्त
और छील देंगे
एक उबले आलू की तरह
शहर का चेहरा

जब फैल जाती है रात की चादर
नींद के धुएँ में डूब जाते हैं पेड़
फूल और पहाड़
इसकी गहरी घाटियों में
गूँजती है सोन की पुकार
नर्मदा ओ…
नर्मदा ओ…..
नर्मदा ओ……..

और पहाड़ों के सीने में
ढुलकते हैं
नर्मदा के आँसू।

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