अपनी ही आग में झुलसती है कविता अपने ही आँसुओं में डूबते हैं शब्द। जिन दोस्तों ने साथ जीने-मरने की क़समें खाई थीं एक दिन वे ही हो जाते हैं लापता और फिर कभी नहीं लौटते, धीरे-धीरे धूसर और अपाठ्य हो जाती हैं उनकी अनगढ़ कविताएँ और दुःख, उनके चेहरे भी ठीक-ठीक याद नहीं रहते।… Continue reading निर्वासन / उत्पल बैनर्जी
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बर्फ़ के लड्डू / उत्पल बैनर्जी
लाल हरे पीले टापुओं की तरह होते थे बर्फ़ के लड्डू बचपन के उदास मौसम में खिलते पलाश की तरह। सुर्ख़ रंगों के इस पार से बहुत रंगीन दिखती थी दुनिया हालाँकि उस पार का यथार्थ बहुत बदरंग हुआ करता था, गर्दन तिरछी कर जब हम लड्डू चूसते तो माँ हमें कान्हा पुकारती तब पैसों… Continue reading बर्फ़ के लड्डू / उत्पल बैनर्जी
भिखारी / उत्पल बैनर्जी
वहाँ डबडबाती आँखों में उम्मीद का बियाबान था किसी विलुप्त होते धीरज की तरह थरथरा रही थी कातर तरलता दूर तक अव्यक्त पीड़ा का संसार बदलते दृश्य-सा फैलता जा रहा था गहरे अविश्वास और धूसर भरोसे में बुदबुदाते होंठ पता नहीं प्रार्थना या कि अभिशाप में काँप रहे थे! ऐश्वर्य को भेदती स्याह खोखल आँखों… Continue reading भिखारी / उत्पल बैनर्जी
हमें दंगों पर कविता लिखनी है / उत्पल बैनर्जी
जब नींद के निचाट अँधेरे में सेंध लगा रहे थे सपने और बच्चों की हँसी से गुदगुदा उठी थी मन की देह, हम जाने किन षड़यंत्रों की ओट में बैठे मंत्रणा करते रहे! व्यंजना के लुब्ध पथ पर क्रियापदों के झुण्ड और धूल भरे रूपकों से बचते जब उभर रहे थे दीप्त विचार तब हम… Continue reading हमें दंगों पर कविता लिखनी है / उत्पल बैनर्जी
इक्कीसवीं सदी की सुबह / उत्पल बैनर्जी
कालचक्र में फँसी पृथ्वी तब भी रहेगी वैसी की वैसी अपने ध्रुवों और अक्षांशों पर वैसी ही अवसन्न और आक्रान्त! धूसर गलियाँ अहिंसा सिखाते हत्यारे असीम कमीनेपन के साथ मुस्कराते निर्लज्ज भद्रजन, असमय की धूप और अंधड़… कुछ भी नहीं बदलेगा! किसी चमत्कार की तरह नहीं आएंगे देवदूत अकस्मात हम नहीं पहुँच सकेंगे किसी स्वर्णिम… Continue reading इक्कीसवीं सदी की सुबह / उत्पल बैनर्जी
बहुत दिनों तक / उत्पल बैनर्जी
जब निराशा का अंधेरा घिरने लगेगा और उग आएंगे दुखों के अभेद्य बीहड़ ऐसे में जब तुम्हारी करुणा का बादल ढँक लेना चाहेगा मुझे शीतल आँचल की तरह मैं लौटा दूंगा उसे कि मुझे सह लेने दो जो तुमने अब तक सहा है! उम्र की दहलीज़ पर जब थमने लगेगा साँसों का ज्वार जीवन के… Continue reading बहुत दिनों तक / उत्पल बैनर्जी
प्रतीक्षा / उत्पल बैनर्जी
मैं भेजूंगा उसकी ओर प्रार्थना की तरह शुभेच्छाएँ, किसी प्राचीन स्मृति की प्राचीर से पुकारूंगा उसे जिसकी हमें अब कोई ख़बर नहीं, अपनी अखण्ड पीड़ा से चुनकर कुछ शब्द और कविताएँ बहा दूंगा वर्षा की भीगती हवाओं में जिसे अजाने देश की किसी अलक्ष्य खिड़की पर बैठा कोई प्रेमी पक्षी गाएगा, मैं सहेज कर रखूंगा… Continue reading प्रतीक्षा / उत्पल बैनर्जी
अन्धेरी दुनिया / उज्जवला ज्योति तिग्गा
हमारे हिस्से का उजाला न जाने कहाँ खो गया कि आज भी मयस्सर नहीं हमें कतरा भर भी आसमाँ ज़िन्दगी जूठन और उतरन के सिवा कुछ भी नहीं चेहरे पर अपमान और लाँछन की चादर लपेट भटकते हैं रोज़ ही ज़िन्दगी की गलियों में आवारा कुत्तों और भिखारियों की तरह … औरो के दुख है… Continue reading अन्धेरी दुनिया / उज्जवला ज्योति तिग्गा
अन्धेरों का गीत / उज्जवला ज्योति तिग्गा
मूक बाँसुरी गाती है मन ही मन अन्धेरों के गीत मूक बाँसुरी में बसता है सोई हुई उम्मीदों और खोए हुए सपनों का भुतहा संगीत देखती है मूक बाँसुरी भी सपने, घने अन्धेरे जंगल में रोशनी की झमझम बारिश का मूक बाँसुरी में क़ैद है अन्धेरे का अनसुना संगीत
टिड्डियों सा दल बाँधे लौटेंगे वे / उज्जवला ज्योति तिग्गा
ज़िन्दगी भर रेंग घिसट कर कीड़े-मकोड़ों-सा जीवन जिया हर किसी के पैरों के तले रौंदे जाने के बावजूद हर बार तेज़ आँधियों में सिर उठाने की हिमाकत की और समय के तेज़ प्रवाह के ख़िलाफ़ स्थिर खड़े रहने की मूर्खता (जुर्रत) की और जीवन की टेढ़ी मेढ़ी उबड़ खाबड़ पगडंडियो पर रखते रहे / राह… Continue reading टिड्डियों सा दल बाँधे लौटेंगे वे / उज्जवला ज्योति तिग्गा