नदी का छोर / ओम निश्चल

यह खुलापन यह हँसी का छोर मन को बाँधता है । सामने फैला नदी का छोर मन को बाँधता है । बादलों के व्यूह में भटकी हुई मद्धिम दुपहरी कौंध जाती बिजलियों-सी आँख में छवियाँ छरहरी गुनगुनाती घाटियों का शोर मन को बाँधता है । सामने फैला नदी का छोर मन को बाँधता है ।… Continue reading नदी का छोर / ओम निश्चल

जब हवा सीटियाँ बजाती है / ओम निश्चल

दूर तक बस्तियों सिवानों में गन्ध फ़सलों की महमहाती है, जब हवा सीटियाँ बजाती है । एक सहलाव भरी गंध लिये आता है आता है बालियाँ लिए मौसम धान का हरापन ठिठकता है, महक उठता है ख़ुशबुओं से मन पत्तियों में छिपी कहीं कोयल धूप के गीत-गुनगुनाती है, जब हवा सीटियाँ बजाती है । एक… Continue reading जब हवा सीटियाँ बजाती है / ओम निश्चल

छुआ मुझे तुमने रूमाल की तरह / ओम निश्चल

ति के लिए… साहित्य के प्रसार के लिए हिन्दी – उर्दू । भोजपुरी । मैथिली । राजस्थानी । संस्कृतम्‌ । अवधी । हरियाणवी । …अन्य भाषाएँ कविता कोश विशेष क्यों है?कविता कोश परिवारRoman छुआ मुझे तुमने रूमाल की तरह / ओम निश्चल मुखपृष्ठ»रचनाकारों की सूची»ओम निश्चल» थके हुए काँधे पर भाल की तरह, छुआ मुझे… Continue reading छुआ मुझे तुमने रूमाल की तरह / ओम निश्चल

यहीं कोई नदी होती / ओम निश्चल

तुम्हारे संग सोना हो तुम्हारे संग जगना हो कुटी हो प्यार की कोई कि जिसमें संग रहना हो कही जो अनकही बातें तुम्हारे संग करनी हों तुम्हारे संग जीना हो तुम्हारे संग मरना हो। यहीं होता कहीं पर गॉंव अपना एक छोटा-सा बसाते हम क्षितिज की छॉंव में कोई बसेरा-सा कहीं सरसों खिली होती कहीं… Continue reading यहीं कोई नदी होती / ओम निश्चल

एक साँस गंध नदी सी / ओम निश्चल

कौन भला गूँथ गया जूड़े में फूल सिहर उठा माथ हल्दिया. एक साँस गंध नदी सी लहरों सा गुनगुना बदन बात-बात पर हँसना रूठना हीरे सा पिघल उठे मन किसने छू लिया भला रेशमिया तन सिहर उठा हाथ मेंहदिया. एक प्यार सोन पिरामिड सा और बदन परछाईं सा जल तरंग जैसे बजता है मन मेरा… Continue reading एक साँस गंध नदी सी / ओम निश्चल

गुनगुनी धूप है / ओम निश्चल

गुनगुनी धूप है गुनगुनी छाँह है. एक तन एक मन एक वातावरण, प्यार की गंध का जादुई व्याकरण, मन में जागी मिलन की अमिट चाह है. नींद में हम मिलें स्वप्न में हम मिलें ज़िंदगी की हरेक साँस में हम खिलें हमको जग की नहीं आज परवाह है. चिट्ठियाँ जो लिखीं संधियाँ जो रचीं तुम… Continue reading गुनगुनी धूप है / ओम निश्चल

गांव, इन दिनों / ओम नागर

गांव इन दिनों दस बीघा लहुसन को जिंदा रखने के लिए हजार फीट गहरे खुदवा रहा है ट्यूवैल निचोड़ लेना चाहता है धरती के पेंदे में बचा रह गया शेष अमृत क्योंकि मनुष्य के बचे रहने के लिए जरूरी हो गया है फसलों का बचे रहना। फसल जिसे बमुश्किल पहुंचाया जा रहा है रसायनिक खाद… Continue reading गांव, इन दिनों / ओम नागर

उपजाये तो क्या उपजायें-तीन / ओम नागर

उपजायें तो क्या उपजायें क्या यूं ही भूख बो कर काटते रहेंगे खुदकुशियों की फसल। या फिर जिस दरांती से काटते आएं है फसल उसी दरांती से काट डाले प्रलोभनों के फंद साहूकार-सफेदपोशों के गले। उपजायें तो क्या उपजायें क्या यूं ही सिसकियां और रूदन बो कर आंसूओं से सिंचतें रहे धरा। या फिर इंकलाब… Continue reading उपजाये तो क्या उपजायें-तीन / ओम नागर

उपजाये तो क्या उपजायें-दो / ओम नागर

उपजायें तो क्या उपजायें चहुं ओर पसर गई है खरपतवार रसायनों ने भस्म कर दी है ऊर्वरता आत्मीयता मुक्त हो रहे है खेत। उपजायें तो क्या उपजायें धरती में गहरें जा पैठा है जल कभी-कभार होती है बिजली के तारों में झनझनाहट धोरें में ही दम तोड़ देता है चुल्लू भर पानी। उपजायें तो क्या… Continue reading उपजाये तो क्या उपजायें-दो / ओम नागर

उपजाये तो क्या उपजायें-एक / ओम नागर

उपजायें तो क्या उपजायें कि खेत से खलिहान होती हुई फसल पहुंच सके घर के बंडों तक मंडियों में पूरे दाम तुलें अनाज के ढेर। उपजायें तो क्या उपजायें कि साहूकार की तिजोरी से निकालकर घरवाली के हाथ थमा सके कड़कड़ाट नोटों की गड्डियां। उपजायें तो क्या उपजायें कि इस बरस बाद कभी न लेना… Continue reading उपजाये तो क्या उपजायें-एक / ओम नागर