नदी का छोर / ओम निश्चल

यह खुलापन
यह हँसी का छोर
मन को बाँधता है ।
सामने फैला नदी का छोर मन को बाँधता है ।

बादलों के व्यूह में
भटकी हुई मद्धिम दुपहरी
कौंध जाती बिजलियों-सी
आँख में छवियाँ छरहरी
गुनगुनाती घाटियों का शोर मन को बाँधता है ।
सामने फैला नदी का छोर मन को बाँधता है ।

ये घटाएँ शोख
यह माहौल को रँगती सियाही,
गुम गए हैं अँधेरों में
रोशनी के किरनवाही
लहरियों पर लहरियों का दौर मन को बाँधता है
सामने फैला नदी का छोर मन को बाँधता है

दूर तक फैली हुई है
रेत की रंगीन दुनिया,
यहाँ आकर सिमट जाती हैं
अनेक संस्कृतियाँ
एक सन्नाटा यहाँ हर ओर मन को बाँधता है ।
सामने फैला नदी का छोर मन को बाँधता है।

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