अजब सी एक बचकानी-सी ख़्वाहिश है मुहब्बत की कोई इक नज़्म लिक्खूँ किसी माशूक़ की जुल्फों के साए लबों[1] की नर्मियों की थरथराहट लरज़ते काँपते क़दमों की आहट किसी मासूम सीने में छुपी बेबाक धड़कन कोई सहसा-सा कमरा, कोई वीरान आँगन कहीं बाँहों में सिमटी कोई आग़ोश[2] की हसरत किसी एक ख़ास लम्हे में छुपी… Continue reading मगर क्यूँ नज़्म लिक्खूँ / संजय कुमार कुंदन
फ़ेसबुक / संजय कुंदन
यह तुम्हारी इच्छाओं का आसमान नहीं आंकड़ों का समुद्र है ज्यों ही तुम उतरते हो इसमें एक नजर तुम्हारे पीछे लग जाती है जो तैरती रहती है तुम्हारे साथ जब तुम खोलने लगते हो मन की गांठें वह चौकन्नी हो जाती है वह दर्ज करती है तुम्हारी धड़कन तुम्हारे रक्त में कामनाओं की उछाल माप… Continue reading फ़ेसबुक / संजय कुंदन
दासता / संजय कुंदन
दासता के पक्ष में दलीलें बढ़ती जा रही थीं अब ज़ोर इस बात पर था कि इसे समझदारी, बुद्धिमानी या व्यावहारिकता कहा जाए जैसे कोई नौजवान अपने नियन्ता के प्रलाप पर अभिभूत होकर ताली बजाता था तो कहा जाता था लड़का समझदार है कुछ लोग जब यह लिख कर दे देते थे कि वे वेतन… Continue reading दासता / संजय कुंदन
ठंड का गीत / संजय अलंग
गरम-गरम रजाई है उसमें बहन और भाई हैं दोनों ने खाई मलाई है और छुपाई मिठाई है गरम-गरम रजाई है उसमें गुड़िया सुलाई है उसको चुनरी पहनाई है जिसमें सितारों की टंकाई है साथ में माँ आई है उसने कहानी सुनाई है परी की बात बताई है हमने मस्ती मनाई है
जंगल में खेल / संजय अलंग
जंगल में एक खेल रचाया बन्दर एक फुटबाल ले आया सबने मिलकर दो दल बनाए भालू, हाथी सभी को लाए शेर ने तभी दहाड़ लगाई सभी के चेहरों से उड़ी हवाई फुटबाल की किसी को सुध न आई सब ने जंगल की ओर दौड़ लगाई
तुम यहीं तो हो / संगीता मनराल
शाम के धुंधलके में ओस की कुछ बूदें पत्तों पर मोती-सी चहककर कह रही हैं तुम यहीं तो हो यहीं कहीं शायद मेरे आसपास नहीं शायद मेरे करीब ओह, नहीं सिर्फ यादों में दूर कहीं किसी कोने में छुपे जुगनू से जल बुझ, जल बुझ भटका देते हो मेरे ख्यालों को और भवरें-सा मन जा… Continue reading तुम यहीं तो हो / संगीता मनराल
सपने / संगीता मनराल
जिन चीटियों को पैरों तले दबा दिया था मैंने कभी अनजाने में वो अक्सर मुझे मेरे सपनों मे आकर काटतीं हैं उनके डंक पूरे शरीर मे सुई से चुभकर सुबह तक देह के हर हिस्से को सूजन मे तबदील कर देते हैं ऐसा अक्सर होने लगा है आजकल पता नहीं क्यों….?
कैसा शहर / संगीता गुप्ता
कोई भी पूरी तरह पहचाना हुआ नहीं दोस्तों के चेहरों पर चढ़े मुखौटे चक्रव्यूह छोटे बड़े अपने – पराये द्रोणाचार्यों के बनाए पहली से पांचवीं मंजिल तक पसरे भीतर जाकर निकलना रोज महत्वाकांक्षाएं लील जातीं संवेदनाएं, शुभेच्छाएं यह कैसा शहर
बरगद / संगीता गुप्ता
बरगद के नीचे आकर निश्चिन्त हो जाते हैं धूप से अकुलाए लोग आकर ठहरे जीने लगते उसकी छाया में नहीं चाहता बरगद समर्थ पिता की तरह कि कोई बना रहे हमेशा उसकी छत्र – छाया में कटता चला जाए अपनी जड़ो से बरगद की मंशा नहीं फितरत है कुदरत की न पनपने देना किसी को… Continue reading बरगद / संगीता गुप्ता
अंतहीन इंतज़ार / संकल्प शर्मा
कभी सोचती हो? वो रिश्ता. जिसका पर्याय, आज तक ‘अधूरा’ है. कभी सोचती हो? वो दर्द. जो अनवरत है, फिर भी कितना पूरा है. वो दिवा स्वप्न, जो जिंदा हैं. भले ही उनमें से कुछ, अब तक शर्मिंदा हैं. क्या सोचती हो? उस अधूरी सी, हंसी के बारे में भी. बताओ ना..!!! या फिर, कुछ… Continue reading अंतहीन इंतज़ार / संकल्प शर्मा