कोई भी पूरी तरह पहचाना हुआ नहीं
दोस्तों के
चेहरों पर चढ़े
मुखौटे
चक्रव्यूह
छोटे बड़े
अपने – पराये द्रोणाचार्यों के बनाए
पहली से पांचवीं मंजिल तक पसरे
भीतर जाकर निकलना रोज
महत्वाकांक्षाएं
लील जातीं
संवेदनाएं, शुभेच्छाएं
यह
कैसा शहर
कोई भी पूरी तरह पहचाना हुआ नहीं
दोस्तों के
चेहरों पर चढ़े
मुखौटे
चक्रव्यूह
छोटे बड़े
अपने – पराये द्रोणाचार्यों के बनाए
पहली से पांचवीं मंजिल तक पसरे
भीतर जाकर निकलना रोज
महत्वाकांक्षाएं
लील जातीं
संवेदनाएं, शुभेच्छाएं
यह
कैसा शहर