बंदर मामा बी.ए. पास, दुलहिन लाए एम.ए. पास मामा बोले-‘घूँघट कर’, मामी बोली-‘मुझसे डर’। मैं लड़की हूँ एम.ए. पास, मैंने खोदी नहीं है घास। फिल्म देखने जाऊँगी, आकर गीत सुनाऊँगी। रोटी नहीं बनाऊँगी, जा होटल में खाऊँगी। बंदर बोला-‘क्यों-क्यों-क्यों’, बंदरी बोली-‘खों-खों-खों।’
डाक टिकट / संत कुमार टंडन ‘रसिक’
मैं हूँ भइया डाक-टिकट, मुझे न कोई राह विकट। डाकघरों में सहे प्रहार, फिर भी कभी न मानी हार। जहाँ कहो मैं चल देता हूँ, सभी जगह तो रह लेता हूँ। लक्ष्य जहाँ का भी ठहराओ, वहीं सदा तुम मुझको पाओ। चिपक जहाँ जिसके मैं जाता, पक्का पूरा साथ निभाता। बीच राह में साथ न… Continue reading डाक टिकट / संत कुमार टंडन ‘रसिक’
अन्नू का तोता / संत कुमार टंडन ‘रसिक’
‘बाबा, बाबा’ बोला पोता, ‘लाल, दुलारे तू क्यों रोता?’ ‘ला दो पिंजला, ला दो तोता बला नहीं, बछ छोता-छोता।’ अन्नू जी ने गाना छोड़ा, अन्नू जी ने खाना छोड़ा, बाबा साहब से की कुट्टी दादा से भी हो गई छुट्टी। अन्नू जी का तोता आया पिंजड़े में उसको बैठाया, तनिक न तोते के मन भाया… Continue reading अन्नू का तोता / संत कुमार टंडन ‘रसिक’
राम दियाल दिया कर हेरो / संत जूड़ीराम
राम दियाल दिया कर हेरो। प्रवल प्रचण्ड नाथ तुव माया काया कर्म सकल जग खेरो। अधम उधारन अब सुब कारण कीजे सफल मनोरथ मेरो। संकट सोंच मोह भ्रम नासन नाम उदार कल्पतरु तेरो। श्री रघुनाथ सनाथ करो अब चित दे सुनो दीन को टेरो। जूड़ीराम सरन तक आयो करहु कृपा वर भक्त बसेरो।
गणपति चरण सरोज मनाऊँ / संत जूड़ीराम
गणपति चरण सरोज मनाऊँ। गणि नायक वरदायक देव मिले कृपा गुणगाऊँ। ब्रह्मा विष्णु महेश त्रिदेव हैं दस अवतार ध्यान में लाऊँ। जान अनाथ सनाथ करो अब रघुवर भक्ति कृपा कर पाऊँ। जूड़ीराम सरन तक आयो बार-बार पद शीश नवाऊँ
जियालाल / संज्ञा सिंह
जियालाल रास मंडल मानिक चौक (जौनपुर) का एक रिक्शा वाला है सुबह के साथ चौराहे पर होने की बात करता है वह रिक्शा खड़ा करके हर गुज़रते आदमी की निग़ाह पढ़ता है शाम होने पर थका-हारा जाता है अपनी झोपडी में पत्नी- बच्चों की निग़ाह में खो जाती है उसकी थकान रचनाकाल : 1994, जौनपुर
नमक / संज्ञा सिंह
बादलों धैर्य मत खोना अभी मेरे होंठों में नमी बरकरार है उमड़ते-घुमड़ते गरज़ते और दौड़ते रहना आँखों में झलक रहा है पानी अभी खाया हुआ नमक घुल रहा है रग-रग में संचरित हो रहा है ख़ून आँखें पठारी शक्ल अख़्तियार कर लें सूख जाएँ होंठ तब बरस जाना कि ज़िन्दगी भर घुलता रहे मेरी ही… Continue reading नमक / संज्ञा सिंह
पैराडाइज़ लॉस्ट-1 / संजीव सूरी
पैराडाइज़ लास्ट (एक) जबसे सर्रियलिस्ट कशमकश चली है उसके अन्दर जब से उसके अन्दर मची उथल-पुथल में रैडिकलिज़्म का समावेश हुआ है एडम को लगने लगा है कि ईव जो एक जिरहबख़तर थी उसके न्युराटिक अस्तित्व के लिए किसी दूसरे नक्षत्र पर रह गई है जबसे उसकी छाती में क़ैद आवाज़ों की दोस्ती उसकी आत्मा… Continue reading पैराडाइज़ लॉस्ट-1 / संजीव सूरी
लड़कियाँ / संजीव सूरी
लड़कियाँ बड़ा अच्छा लगता है जब लदअकियाँ स्वप्न देखती हैं उनके ख़्वाब होते हैं उन्हीं की तरह रेशमी, मुलायम और महीन. स्वप्न देखती लड़कियों के पुरख़ुलूस चेहरों पर हो जाती है मुनक्कश सतरंगी गुलकारी. उड़ते हैं बादलों के फाहे होती है नदियों की कल-कल झरनों की झर-झर कलियों की चटकन झड़ते हैं हरसिंगार के फूल… Continue reading लड़कियाँ / संजीव सूरी
हरी-हरी पत्तियाँ / संजीव बख़्शी
उसने दरवाज़ा खटखटाया और पूछा मेरा हाल जैसे-तैसे मैंने क़िताब का वह पन्ना खोल लिया जहाँ लिखा हुआ है— आकाश इस क़िताब में जहाँ पृथ्वी, हवा, पानी या अग्नि लिखा हुआ है ज़रूरत हो और खोल लूँ यह पन्ना इसलिए कचनार की पत्तियों को रख दिया है पन्नों के बीच दबा कर ।