चाँद ने मुझमें देखा मैंने चाँद में देखते ही रहे हम रुके नहीं मिले थे नयन और झुके नहीं भर आईं मेरी ही आँखें बाद में।
यह घड़ी / सत्येन्द्र श्रीवास्तव
सामने जो बुत बनी-सी चुप खड़ी है वह परीक्षण की घड़ी है डेस्क पर रक्खे पड़े हैं कई कोरे पृष्ठ अँगुलियों में जड़ हुई सहमी रुकी पेंसिल दृष्टियों में बाढ़ है बीते हुए कल की बह रहे हैं धड़ों से अलगा चुके कुछ दिल अरथियाँ हैं स्याह क्षितिजों की लाश किरणों की पड़ी है मोह… Continue reading यह घड़ी / सत्येन्द्र श्रीवास्तव
इंतज़ार-२ / सत्यानन्द निरुपम
तुम्हारी आमद तय थी थाप सीढ़ियों पर पड़ी किसी के पैरों की कानों ने कहा- यह तुम नहीं हो और तुम नहीं थी सोचता हूँ कानों का तुम्हारे पैर की थापों से जो परिचय है, वह क्या है… कुछ अनाम भी रहे जिंदगी में तो जिंदगी सफ़ेद हलके फूलों की भीनी-भीनी खुशबू-सी बनी रहती है… Continue reading इंतज़ार-२ / सत्यानन्द निरुपम
इंतज़ार-१ / सत्यानन्द निरुपम
कागा कई बार आज सुबह से मुंडेर पर बोल गया सूरज माथे से आखों में में उतर रहा मगर… कई बार यूँ लगा कि साइकिल की घंटी ही बजी हो दौड़कर देहरी तक पहुंचा तो शिरीष का पेड़ भी अकेला है ओसारे पर किसी की आमद तो नहीं दिखती सड़क का सूनापन आँखों में उतर… Continue reading इंतज़ार-१ / सत्यानन्द निरुपम
कुहूकिनी रे! / सत्यानन्द निरुपम
कुहूकिनी रे, बौराए देती है तेरी आवाज़. कहीं सेमल का फूल कोई चटखा है लाल तेरी हथेली का रंग मुझे याद आया है आम की बगिया उजियार भई होगी तेरी आँखों से छलके हैं कोई मूंगिया राग री गुलमोहर के फूल और पाकड़ की छाँव सखि पीपल-बरगद एक ठांव सखि याद है तुमको वो गांव… Continue reading कुहूकिनी रे! / सत्यानन्द निरुपम
दोस्त / सत्यपाल सहगल
मैं रात का वाचक हूँ उसका एकमात्र नुमाईंदा मैं उसका एकमात्र दोस्त कौन हैं उसके माता-पिता? हमारी सैंकड़ों जिज्ञासाओं में उसकी जगह नहीं दिखती हमारी हँसी मं तीज-त्यौहार में सामुदायिक मेलों-ठेलों में क्या कोई उसकी बात करता है हमार रुदन में भी वह एक परिपार्श्व की तरह होती है प्रेम की भूखी लड़की की तरह… Continue reading दोस्त / सत्यपाल सहगल
माँ की एकाकी चिंता / सत्यपाल सहगल
एक ही बेटा था माँ तुम्हारा वह भी बनना चाहता था कवि अपनी पूरी माँस मज्जा से तुम्हारा चिंतित होना स्वभाविक था जीवन भर तुमने उस खिड़की के खुलने का इंतज़ार किया था जो बेहतर मौसम की ओर खुलती है दिन,मास,वर्ष,तक तय किए थे तुमने तुमने उसे देखा कविता की आग में जलते हुए और… Continue reading माँ की एकाकी चिंता / सत्यपाल सहगल
विसाल / सत्यपाल आनंद
मैं ने कल शब आसमाँ को गिरते देखा और सोचा अब ज़मीं और आसमाँ शायद मिलेंगे रात गुज़री और शफ़क़ फूली तो मैं ने चढ़ते सूरज की कलाई थाम कर उस से कहा भाई रूको तुम दो क़दम आगे बढ़े तो आसमाँ शायद गिरेगा ख़शम-गीं नज़रों से मुझ को देख कर सूरज ने आँखें फरे… Continue reading विसाल / सत्यपाल आनंद
ख़ून की ख़ुश्बू / सत्यपाल आनंद
ख़ून की ख़ुश्बू उड़ी तो ख़ुद-कुशी चीख़ी कि मैं ही ज़िंदगी हूँ आओ अब इस वस्ल की साअत को चूमो मर गई थी जीते-जी मैं और तुम जीने की ख़ातिर लम्हा लम्हा मर रहे थे ख़ुद मसीहा भी थे और बीमार भी थे (और ख़ुद अपनी जराहत के लिए तय्यार भी थे) आओ अब जी… Continue reading ख़ून की ख़ुश्बू / सत्यपाल आनंद
अगला सफ़र तवील नहीं / सत्यपाल आनंद
वो दिन भी आए हैं उस की सियाह ज़ुल्फ़ों में कपास खिलने लगी है, झलकती चाँदी के कशीदा तार चमकने लगे हैं बालों में वो दिन भी आए हैं सुर्ख़ ओ सपीद गालों में धनक का खेलना ममनूअ है, लबों पे फ़क़त गुलों की ताज़गी इक साया-ए-गुरेज़ाँ है वो भी दिन आए हैं उस के… Continue reading अगला सफ़र तवील नहीं / सत्यपाल आनंद