विसाल / सत्यपाल आनंद

मैं ने कल शब
आसमाँ को गिरते देखा
और सोचा
अब ज़मीं और आसमाँ शायद मिलेंगे

रात गुज़री
और शफ़क़ फूली तो मैं ने
चढ़ते सूरज की कलाई
थाम कर उस से कहा
भाई रूको
तुम दो क़दम आगे बढ़े तो
आसमाँ शायद गिरेगा
ख़शम-गीं नज़रों से मुझ को
देख कर सूरज ने आँखें
फरे लें धीरे से बोला
आसमाँ हर रात गिरता है
मगर दोनों कभी मिलते नहीं हैं !

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