कहवाघरों की सर्द बहसों में अपने को खोने से बेहतर है घर में बीमार बीबी के पास बैठो, आईने के सामने खड़े होकर उलझे बालों को सँवारो – अपने को आँको, थके-हारे पड़ौसी को लतीफ़ा सुनाओ बच्चों के साथ साँप-सीढ़ी खेलो – बेफ़िक्र फिर जीतो चाहे हारो, कहने का मकसद ये कि खुद को यों… Continue reading एक आत्मीय अनुरोध / नंद भारद्वाज
किला /जहाँ एक उजाले की रेखा खिंची है/ नंद चतुर्वेदी
वह किला पूरी तरह ध्वस्त हो गया था एक पूरे शानदार इतिहास के बावजूद वे वीरांगनाएँ आग में कूद गयी थीं अपने कृतघ्न और क्लीव पतियों के लिए जिन्हें प्रेम करना नहीं आता था वे सुन्दर और अप्रतिम थीं क्योंकि मर चुकी थीं और अब वे स्वतंत्र थे उनके पति प्रेम का विरूद गाने को… Continue reading किला /जहाँ एक उजाले की रेखा खिंची है/ नंद चतुर्वेदी
किताब /जहाँ एक उजाले की रेखा खिंची है/ नंद चतुर्वेदी
उस तरह मैं नहीं पढ़ सका जिस तरह चाहिए इस किताब में लिखी इबारत यह किताब जैसी भी बनी हो जिस किसी भी भाषा में लिखी गयी हो लेकिन जब कभी पढ़ी जाएगी बहुत कुछ विलुप्त हो जाएगा मैं ही कभी गा-गा कर पढ़ने लगूँगा कभी अटक-अटक कर मैं ही बदल दूगाँ उद्दण्डतापूर्वक कभी कुछ… Continue reading किताब /जहाँ एक उजाले की रेखा खिंची है/ नंद चतुर्वेदी
यूँ दिल में अरमान बहुत हैं / जगदीश चंद्र ठाकुर
यूँ दिल में अरमान बहुत हैं अक्षत कम भगवान बहुत हैं | हासिल हो तो भी क्या होगा फिर भी वे हैरान बहुत हैं | यहाँ मुखौटे का फैशन है गुल हैं कम गुलदान बहुत हैं | शहर नया दस्तूर पुराना दर हैं कम दरबान बहुत हैं | सच बोलोगे, दार मिलेगी झूठ कहो, ईनाम… Continue reading यूँ दिल में अरमान बहुत हैं / जगदीश चंद्र ठाकुर
हर जगह बस दीनता ही दीनता है / जगदीश चंद्र ठाकुर
हर जगह बस दीनता ही दीनता है एक भिखारी दूसरे से छीनता है | और क्या वे दे सकेंगे दूसरे को जिनके भीतर हीनता ही हीनता है | लोग कंबल ओढ कर घी पी रहे हैं और हम कहते इसे शालीनता है | ये जो बगुले हैं दिखाई दे रहे मछलियों के ही लिए तल्लीनता… Continue reading हर जगह बस दीनता ही दीनता है / जगदीश चंद्र ठाकुर
सच हम नहीं सच तुम नहीं / जगदीश गुप्त
सच हम नहीं सच तुम नहीं सच है सतत संघर्ष ही । संघर्ष से हट कर जिए तो क्या जिए हम या कि तुम। जो नत हुआ वह मृत हुआ ज्यों वृन्त से झर कर कुसुम। जो पंथ भूल रुका नहीं, जो हार देखा झुका नहीं, जिसने मरण को भी लिया हो जीत, है जीवन… Continue reading सच हम नहीं सच तुम नहीं / जगदीश गुप्त
हिम नहीं यह / जगदीश गुप्त
हिम-जलद, हिम-श्रृंग हिम-छिव, हिम-दिवस, हिम-रात, हिम-पुलिन, हिम-पन्थ; हिम-तरू, हिम-क्षितिज, हिम-पात। आँख ने हिम-रूप को जी-भर सहा है। सब कहीं हिम है मगर मन में अभी तक स्पन्दनों का उष्ण-जलवाही विभामय स्त्रोत अविरल बह रहा है हिम नहीं यह – इन मनस्वी पत्थरों पर निष्कलुष हो जम गया सौन्दयर्। यह हिमानी भी नहीं – शान्त घाटी… Continue reading हिम नहीं यह / जगदीश गुप्त
तुझे चांद कहूं या सूरज / जगदम्बा चोला
तुझे चांद कहूं या सूरज तुझे दीप कहूं या तारा, मेरा नाम करेगा रोशन जग में मेरा राजदुलारा! मेरे सपने सजे हैं तुझसे मेरी आंखों के तारे, मेरी दुनिया रोशन तुझसे तुझे ला दूं चांद-सितारे। तुझे मुन्ना कहूं या राजा तू बेटा मेरा प्यारा, मेरा नाम करेगा रोशन, जग में मेरा राजदुलारा! अब सो जा… Continue reading तुझे चांद कहूं या सूरज / जगदम्बा चोला
सांझ ढले पंखा झले / जगदम्बा चोला
सांझ ढले पंखा झले, मैया तुम्हारी, हौले से सो जा मेरी राजदुलारी, रात की रानी ने तेरी सेज संवारी, चुपके से सो जा मेरी राजदुलारी! आएंगे चंदा मामा रात उजासे, लाएंगे तेरे लिए दूध-बतासे, तारों की नगरी से आई सवारी, चुपके से सो जा मेरी लाडली प्यारी! चांदी के पलने में रेशम की डोरी, फूलों… Continue reading सांझ ढले पंखा झले / जगदम्बा चोला
रवि रश्मि किरीट धरे / जगदंबा प्रसाद मिश्र ‘हितैषी’
रवि रश्मि किरीट धरे द्युति कुन्तलों की नव नीर धरों पय लिए श्रुति भार हितैषी स्ववादित वीण का किन्नरों से भ्रमरों पय लिए उतरी पड़ती नभ से परी सी मानो स्वर्ण प्रभात परों पय लिए किरणों के करों सरों के जलजात उषा की हँसि अधरों पय लिए