एक आत्मीय अनुरोध / नंद भारद्वाज

कहवाघरों की सर्द बहसों में
अपने को खोने से बेहतर है
घर में बीमार बीबी के पास बैठो,
आईने के सामने खड़े होकर
उलझे बालों को सँवारो –
अपने को आँको,
थके-हारे पड़ौसी को लतीफ़ा सुनाओ
बच्चों के साथ साँप-सीढ़ी खेलो –
बेफ़िक्र फिर जीतो चाहे हारो,
कहने का मकसद ये कि
खुद को यों अकारथ मत मारो !

ज़रूरी नहीं
कि जायका बदलने के लिए
मौसम पर बात की जाए
खंख क़िताबों पर ही नहीं
चौतरफ़ दिलो-दिमाग पर
अपना असर कर चुकी है –

खिड़की के पल्ले खोलो
और ताज़ा हवा लेते हुए
कोलाहल के बीच
उस आवाज़ की पहचान करो
जिसमें धड़कन है ।

आँख भर देखो उस उलझी बस्ती को
उकताहट में व्यर्थ मत चीख़ो,
बेहतर होगा –
अगर चरस और चूल्हे के
धुँए में फ़र्क करना सीखो !

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