हर जगह बस दीनता ही दीनता है / जगदीश चंद्र ठाकुर

हर जगह बस दीनता ही दीनता है
एक भिखारी दूसरे से छीनता है |

और क्या वे दे सकेंगे दूसरे को
जिनके भीतर हीनता ही हीनता है |

लोग कंबल ओढ कर घी पी रहे हैं
और हम कहते इसे शालीनता है |

ये जो बगुले हैं दिखाई दे रहे
मछलियों के ही लिए तल्लीनता है |

चेतना के स्वर बहुत अस्वस्थ हैं
बस क्षणिक उत्तेजना, उद्विग्नता है |

तुमने उस लड़के को देखा है कभी
सुबह कूडों में भी जो कुछ बीनता है |

जो चढे छत पर हमें सीढी बनाकर
क्या उन्हीं के ही लिए स्वाधीनता है ?

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