दीवानों का मंज़िल का पता याद नहीं है / ‘वहीद’ अख़्तर

दीवानों का मंज़िल का पता याद नहीं है जब से तिरा नक़्श-ए-कफ़-ए-पा याद नहीं है अफ़सुर्दगी-ए-इश्‍क के खुलते नहीं असबाब क्या बात भुला बैठे हैं क्या याद नहीं है हम दिल-ए-ज़दगाँ जीते हैं यादों के सहारे हाँ मिट गए जिस पर वो अदा याद नहीं है घर अपना तो भूली ही थी आशुफ़्तगी-ए-दिल ख़ुद-रफ़्ता को… Continue reading दीवानों का मंज़िल का पता याद नहीं है / ‘वहीद’ अख़्तर

पस्पाई / वहाब दानिश

पाँच दस का छोटा कमरा दो दरवाज़े एक में गंदा पर्दा दूजे में वो भी नहीं बंद खिड़की पैवंद-ज़दा मच्छर-दानी डोलता पलंग बैठो तो तहतुस-सुरा हिल जाए एक औरत आलम-ए-सुपुर्दगी में पाँच दस के नोट खूँटी पे टंगा ओवरकोट लाम से बे-नैल-ओ-मुराम वापस पस्पाई मारका-ए-आराई जंग से हाता-पाई सोचो तो सिदरत-उल-मुंतहा हिल जाए

इब्राहीम दीदा / वहाब दानिश

मुख़ातिब आसमाँ है या ज़मीं मालूम कर लेना कि दोनों के लिए तश्बीब के मिसरे अलग से हैं कहीं ऐसा न हो कि आसमाँ बद-ज़न ज़मीं नाराज़ हो जाए क़सीदे में गुरेज़-ए-ना-रवा का मोड़ आ जाए तिरे सर पे कोई इल्ज़ाम आएद हो कि तू भी अंदलीब-ए-गुलशन-ए-ना-आफ्रीदा है सुख़न-फ़हमी तिरी गुंजलक बयाँ इबहाम-दीदा है ये… Continue reading इब्राहीम दीदा / वहाब दानिश

आह-ए-शब-ए-नाला-ए-सहर ले कर / ‘वहशत’ रज़ा अली कलकत्वी

आह-ए-शब-ए-नाला-ए-सहर ले कर निकले हम तोश-ए-सफर ले कर शुग़्ल है नाला कुछ मुराद नहीं क्या करूँ ऐ फ़लक असर ले कर तेरी महफ़िल का यार क्या कहना हम भी निकले हैं चश्म-ए-तर ले कर आप मैं ने दिया दिल उस बुत को झुक गई शाख़ ख़ुद समर ले कर था क़फ़स का ख़याल दामन-गीर उड़… Continue reading आह-ए-शब-ए-नाला-ए-सहर ले कर / ‘वहशत’ रज़ा अली कलकत्वी

आँख में जलवा तिरा दिल में तिरी याद रहे / ‘वहशत’ रज़ा अली कलकत्वी

आँख में जलवा तिरा दिल में तिरी याद रहे ये मयस्सर हो तो फिर क्यूँ कोई ना-शाद रहे इस ज़माने में ख़ामोशी से निकलता नहीं काम नाला पुर-शोर हो और ज़ोरों पे फ़रियाद रहे दर्द का कुछ तो हो एहसास दिल-ए-इंसान में सख़्त ना-शाद है दाइम जो यहाँ शाद रहे ऐ तिरे दाम-ए-मोहब्बत के दिल… Continue reading आँख में जलवा तिरा दिल में तिरी याद रहे / ‘वहशत’ रज़ा अली कलकत्वी

बड़े मियाँ / वसु मालवीय

बड़े मियाँ की क्या पहचान? छोटा-सा मँुह, लंबे कान! मूँछ नुकीली, ऐनक गोल, डिब्बे-सा मुँह देते खोल, पिच्च-पिच्च कर थूकें पान! यों तो नाक सुपाड़ी-सी, बजती छुक-छुक गाड़ी-सी, लेते सिर पर चादर तान! कहीं ईद, बैशाखी है, होली, क्रिसमस, राखी है, सबके साथ मिलाते तान! बड़े मियाँ अच्छे इनसान, यही सही उनकी पहचान, मिलें आपको,… Continue reading बड़े मियाँ / वसु मालवीय

भालू हुआ वकील / वसु मालवीय

बी.ए. ओर एल-एल.बी. पढ़कर भालू हुआ वकील, फर्राटे से लंबी-चौड़ी देने लगा दलील। जैसे टहल रहा जंगल में वैसे चला कचहरी, रस्ते में ही लगी टोकने उसको ढीठ गिलहरी। बोली,‘दादा, पहले काला- कोट सिलाकर आना, तभी कचहरी जाकर तुम अपना कानून दिखाना!’ भालू हँसा ठठाकर, बोला- ‘तुमको क्या समझाऊँ, जनम लिया ही कोट पहनकर अब… Continue reading भालू हुआ वकील / वसु मालवीय

प्यारी नानी / वसु मालवीय

मम्मी की भी मम्मी हैये अपनी प्यारी नानी, दुलरा देती जब हम करते- हैं कोई शैतानी। नहीं मारती, नहीं डाँटती बिल्कुल सीधी सादी, उतनी ही बुढ़ी है, जितनी- बूढ़ी मेरी दादी। लोरी गाकर कभी सुलाती- या फिर परी कहानी! बाँच-बाँच लेती रामायण- की पोथी घंटे भर, खेल-कूद कर गुड़िया लौटी मिट्टी पोते मुँह पर। हँसती-हँसती… Continue reading प्यारी नानी / वसु मालवीय

उसूलों पे जहाँ आँच आये / वसीम बरेलवी

उसूलों पे जहाँ आँच आये टकराना ज़रूरी है जो ज़िन्दा हों तो फिर ज़िन्दा नज़र आना ज़रूरी है नई उम्रों की ख़ुदमुख़्तारियों को कौन समझाये कहाँ से बच के चलना है कहाँ जाना ज़रूरी है थके हारे परिन्दे जब बसेरे के लिये लौटें सलीक़ामन्द शाख़ों का लचक जाना ज़रूरी है बहुत बेबाक आँखों में त’अल्लुक़… Continue reading उसूलों पे जहाँ आँच आये / वसीम बरेलवी

मुहब्बतों के दिनों की यही ख़राबी है / वसीम बरेलवी

तुम्हारी राह में मिट्टी के घर नहीं आते इसीलिए तो तुम्हें हम नज़र नहीं आते मुहब्बतों के दिनों की यही ख़राबी है ये रूठ जाएँ तो फिर लौटकर नहीं आते जिन्हें सलीका है तहज़ीब-ए-ग़म समझने का उन्हीं के रोने में आँसू नज़र नहीं आते ख़ुशी की आँख में आँसू की भी जगह रखना बुरे ज़माने… Continue reading मुहब्बतों के दिनों की यही ख़राबी है / वसीम बरेलवी