जिस को माना था ख़ुदा ख़ाक का पैकर निकला / ‘वहीद’ अख़्तर

जिस को माना था ख़ुदा ख़ाक का पैकर निकला हाथ आया जो यक़ीं वहम सरासर निकला इक सफ़र दश्‍त-ए-ख़राबी से सराबों तक है आँख खोली तो जहाँ ख़्वाब का मंज़र निकला कल जहाँ जुल्म ने काटी थीं सरों की फसलें नम हुई है तो उसी ख़ाकसे लश्‍कर निकला ख़ुश्‍क आँखों से उठी मौज तो दुनिया… Continue reading जिस को माना था ख़ुदा ख़ाक का पैकर निकला / ‘वहीद’ अख़्तर

दीवानों का मंज़िल का पता याद नहीं है / ‘वहीद’ अख़्तर

दीवानों का मंज़िल का पता याद नहीं है जब से तिरा नक़्श-ए-कफ़-ए-पा याद नहीं है अफ़सुर्दगी-ए-इश्‍क के खुलते नहीं असबाब क्या बात भुला बैठे हैं क्या याद नहीं है हम दिल-ए-ज़दगाँ जीते हैं यादों के सहारे हाँ मिट गए जिस पर वो अदा याद नहीं है घर अपना तो भूली ही थी आशुफ़्तगी-ए-दिल ख़ुद-रफ़्ता को… Continue reading दीवानों का मंज़िल का पता याद नहीं है / ‘वहीद’ अख़्तर