जय हिन्‍द / त्रिलोकचन्‍द महरूम

पैदा उफ़क़े –हिन्‍द से हैं सुबह के आसार है मंज़िले-आखिर में ग़ुलामी की शबे-तार आमद सहरे-नौ की मुबारक हो वतन को पामाले – महन को मश्रिक़ में ज़ियारेज हुआ सुबह का तारा फ़र्ख़न्‍दा-ओ-ताबिन्‍दा-ओ-जांबख़्श-ओ-दिलआरा रौशन हुए जाते हैं दरो-बाम वतन के ज़िन्‍दाने – कुहन के ‘जयहिन्‍द’ के नारों से फ़ज़ा गूँज रही है ‘जयहिन्‍द’ की आलम… Continue reading जय हिन्‍द / त्रिलोकचन्‍द महरूम

माँ / त्रिलोक महावर

कमर झुक गई माँ बूढ़ी हो गई प्यार वैसा ही है याद है कैसे रोया बचपन में सुबक-सुबक कर माँ ने पोंछे आँसू खुरदरी हथेलियों से कहानी सुनाते-सुनाते चुपड़ा ढेर सारा प्यार गालों पर सुबह-सुबह रोटी पर रखा ताजा मक्खन रात में सुनाईं सोने के लिए लोरियाँ इस उम्र में भी थकी नहीं माँ तो… Continue reading माँ / त्रिलोक महावर

बस्ता / त्रिलोक महावर

बस्ता बहुत भारी था ढोते-ढोते एक महीने में बेटी का वज़न घट गया इंग्लिश स्कूल के स्टैंडर्ड फर्स्ट में पढ़ते-पढ़ते दो बार लगाई गई मेरी पेशियाँ मास्टर जी परेशान मेरी बेटी क्यों नहीं करती फॉलो आख़िरकार तय कर ही लिया मैंने बस्ते का बोझ कुछ कम करना बेटी की ख़ातिर अब वह के०जी० टू में… Continue reading बस्ता / त्रिलोक महावर

विदेशी वस्त्र / त्रिभुवन नाथ आज़ाद ‘सैनिक’

सितमगर की हस्ती मिटानी पड़ेगी, हमें अपनी करके दिखानी पड़ेगी। कभी उफ़ न लाएंगे अपनी जुबां पर, मुसीबत सभी कुछ उठानी पड़ेगी। बहुत हो चुका, अब सहें हम कहां तक, ये बेईमानी सारी हटानी पड़ेगी। विदेशी वसन और नशे की जिनिस पर, हमें अब पिकेटिंग करानी पड़ेगी। नमक को बनाकर और कर बंद करके, आज़ादी… Continue reading विदेशी वस्त्र / त्रिभुवन नाथ आज़ाद ‘सैनिक’

सवाल / त्रिपुरारि कुमार शर्मा

फ़लक पर दूर तक छाई हुई है नूर की चादर ज़मीं पर सुब्ह उतरी है कि जैसे मिट गए सब ग़म सुना है जश्न आज़ादी का हम सबको मनाना है मगर एक बात तुमसे पूछता हूँ ऐ मिरे हमदम जहाँ पे जिस्म हो आज़ाद लेकिन रूह क़ैदी हो तो क्या ऐसी रिहाई को रिहाई कह… Continue reading सवाल / त्रिपुरारि कुमार शर्मा

आज़ादी / त्रिपुरारि कुमार शर्मा

जुबां तुम काट लो या फिर लगा दो होंठ पर ताले मिरी आवाज़ पर कोई भी पहरा हो नहीं सकता मुझे तुम बन्द कर दो तीरग़ी में या सलाख़ों में परिन्दा सोच का लेकिन ये ठहरा हो नहीं सकता अगर तुम फूँक कर सूरज बुझा दोगे तो सुन लो फिर जला कर ये ज़ेह्न अपना… Continue reading आज़ादी / त्रिपुरारि कुमार शर्मा

भीतर-बाहर / त्रिनेत्र जोशी

मैं हरियाली के भीतर हूँ बाहर एक हरियाली है लताओं से सीखा है हर हाल में झूमना मुसीबतों में उन्हें बाकायदा झुकते भी देखा है उनके हिलने-डुलने में भीतर भी हिलते हैं कुछ पेड़ इस रंग में एक तृप्ति है उन्हें दीवार पर चढ़ते और खिलखिलाते देखा है मैंने सूरजमुखी अपने बचपन की तरह उसे… Continue reading भीतर-बाहर / त्रिनेत्र जोशी

गर्मियाँ / त्रिनेत्र जोशी

गुमसुम से इस मौसम में जब नहीं आती हवाएँ सूखे होंठों वाली पत्तियाँ बार-बार चोंचें खोलती चिड़ियाएँ हरियाली पर लगी फफूँद कोई भी नहीं आता खिड़कियों के सामने पंख फड़फड़ाता उदास गुज़र जाती हैं लड़कियाँ और टहनियाँ खींचती हैं साँसें प्यास है चारों तरफ़ हाथ फैलाए हो गया है सोने का वक़्त उड़ गई है… Continue reading गर्मियाँ / त्रिनेत्र जोशी

झुर्रियाँ / त्रिजुगी कौशिक

माथे पर झुर्रियाँ झलकने लगी हैं ये चिन्ता की हैं या उम्र की… पर चेहरे पर प्रौढ़ता का अहसास कराती हैं ये हर बुजुर्ग के चहरे पर बल खाते हुए देखी जा सकती हैं यह सुखों का कटाव है या दुखों का हिसाब कहा नहीं जा सकता किसी बूढ़ी माँ के ललाट पर संवेदना का… Continue reading झुर्रियाँ / त्रिजुगी कौशिक

मुनगे का पेड़ / त्रिजुगी कौशिक

घर की बाड़ी में मुनगे क एक पेड़ है वह गाहे-बगाहे की साग प्रसूता के लिए तो पकवान है मकान बनाने के लिए उसे काटना था पर किसी की हिम्मत नहीं उसमें बसी हैं माँ की स्मृतियाँ जैसे नीम्बू के पेड़ में दीदी की पिताजी की– तालाब में लगाए बड़ में नतमस्तक हो जाता है… Continue reading मुनगे का पेड़ / त्रिजुगी कौशिक