जय हिन्‍द / त्रिलोकचन्‍द महरूम

पैदा उफ़क़े –हिन्‍द से हैं सुबह के आसार
है मंज़िले-आखिर में ग़ुलामी की शबे-तार

आमद सहरे-नौ की मुबारक हो वतन को
पामाले – महन को

मश्रिक़ में ज़ियारेज हुआ सुबह का तारा
फ़र्ख़न्‍दा-ओ-ताबिन्‍दा-ओ-जांबख़्श-ओ-दिलआरा

रौशन हुए जाते हैं दरो-बाम वतन के
ज़िन्‍दाने – कुहन के

‘जयहिन्‍द’ के नारों से फ़ज़ा गूँज रही है
‘जयहिन्‍द’ की आलम में सदा गूँज रही है

यह वलवला यह जोश यह तूफ़ान मुबारक
हर आन मुबारक

अहले-वतन आपस में उलझने का नहीं वक़्त
ऐसा न हो गफ़्लत में गुज़र जाये कहीं वक़्त

लाज़िम है कि मंज़िल के निशाँ पर हों निगाहें
पुरपेच हैं राहें

वह सामने आज़ादिए-कामिल का निशाँ है
मक़सूद वही है, वही मंज़िल का निशाँ है

दरकार है हिम्‍मत का सहारा कोई दम और
दो चार क़दम और

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